ऑफ़बीट
AKK रिपोर्ट: कहीं आपने भी तो धूमिल नहीं कर दी आजादी के मतवाले भगत सिंह की स्मृतियां?
ये दिल उन्हे तहे-ए-दिल से सलाम करता है
जो अपना लहू इस वतन को कुर्बान करता है
कभी भगत कभी खुदीराम तो कभी राजगुरु, सुखदेव जैसा क्रांतिकारी बन
मुश्किल राहों पर भी वो डटकर दुश्मन पे वार करता है
खुद मिटकर वो रोशन जहां करता है
उगता हुआ सूरज भी सबसे पहले उसे प्रणाम करता है- (चारू खरे )
आज देशभर में जोरों-शोरों से भगत सिंह की ११०वीं वर्षगांठ मनाई जा रही है। खबरों में जितना महत्व भगत सिंह को दिया जा रहा है, भगत सिंह को उनकी जयंती पर नमन करने के लिए उतना ही महत्व पीएम मोदी को भी दिया जा रहा है। काश ये महत्व अगर उन्हें हर रोज दिया जाता तो आज उनकी विस्मृतियाँ किन्हीं कोनों में धूल न खा रही होती।
आजादी का वो मतवाला जो सिर्फ अपने दिलों दिमाग की सुनता था। उसका जन्म 27 सितंबर, 1907 को लायलपुर ज़िले के बंगा में (अब पाकिस्तान में) हुआ था। उनका पैतृक गांव खट्कड़ कलाँ है जो पंजाब, भारत में है। उनके पिता का नाम किशन सिंह और माता का नाम विद्यावती था। भगत सिंह का परिवार एक आर्य-समाजी सिख परिवार था। भगत सिंह करतार सिंह सराभा और लाला लाजपत राय से अत्याधिक प्रभावित रहे।
जिस उम्र में आज के युवा अपनी जिंदगी हाथ में स्मार्टफ़ोन और कान में ईयरफोन लगा कर बिता देते है उस उम्र में इस युवा ने अपने खेतों में चाचा अजित सिंह के साथ बंदूके बोना शुरू कर दी थी। आज भी उनकी स्मृतियों का वो वाकया याद आता है जब चाचा अजित सिंह ने भगत से पूछा था- बेटा तुम रोज बंदूके जमीं में क्यों बोते हो।
कहते हैं ‘पूत के पांव पालने में ही दिखाई पड़ जाते हैं’।
पांच वर्ष की बाल अवस्था में ही भगतसिंह के खेल भी अनोखे थे। वह अपने साथियों को दो टोलियों में बांट देता था और वे परस्पर एक-दूसरे पर आक्रमण करके युद्ध का अभ्यास किया करते। भगतसिंह के हर कार्य में उसके वीर, धीर और निर्भीक होने का आभास मिलता था।
चाचा के इस सवाल पर वो मुस्कुराए और बोले- चाचा मैं इन ढेर सारी बंदूकों से इन अंग्रेजों का सफाया कर अपनी मातृभूमि की रक्षा करूँगा उनके इस जवाब ने चाचा अजित को भी चकित कर दिया अब तो वो भी ये बात समझ चुके थे कि भगत सिंह की सच्ची देशभक्ति के आगे उनकी छोटी उम्र का कोई मोल नहीं रह गया था।
उनके चाचा सरदार अजित सिंह ने भारतीय देशभक्त संघ की स्थापना की थी। अजित सिंह के खिलाफ 22 मामले दर्ज हो चुके थे जिसके कारण वो ईरान पलायन के लिए मजबूर हो गए। उनके परिवार ग़दर पार्टी के समर्थक थे और इसी कारण से बचपन से ही भगत सिंह के दिल में देश भक्ति की भावना उत्पन्न हो गयी।
13 अप्रैल 1919 को जलियांवाला बाग हत्याकांड ने भगत सिंह के बाल मन पर बड़ा गहरा प्रभाव डाला। उनका मन इस अमानवीय कृत्य को देख देश को स्वतंत्र करवाने की सोचने लगा। भगत सिंह ने चंद्रशेखर आज़ाद के साथ मिलकर क्रांतिकारी संगठन तैयार किया।
लाहौर षड़यंत्र मामले में भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरू को फांसी की सज़ा सुनाई गई और बटुकेश्वर दत्त को आजीवन कारावास दिया गया। भगत सिंह को 23 मार्च, 1931 की शाम सात बजे सुखदेव और राजगुरू के साथ फांसी पर लटका दिया गया। तीनों ने हंसते-हँसते देश के लिए अपना जीवन बलिदान कर दिया और हम सबको अलविदा कह गए।
भगत सिंह नास्तिक थे वो भगवान में विश्वास नहीं रखते थे द पीपल” में 27 सितम्बर 1931 के अंक में प्रकाशित अंक में भगतसिंह ने ईश्वर के बारे में अनेक तर्क किए हैं। इसमें सामाजिक परिस्थितियों का भी विश्लेषण किया गया है।
खैर मुद्दा ये नहीं है कि भगत सिंह ने इस देश को क्या दिया मुद्दा तो ये है की हम उन्हें और उनकी यादों को क्या दे रहे है? क्या आज का युवा उनके द्वारा दिए गए त्यागों से परिचित है? क्या हम और आप उन्हे उतना ही सम्मान दे रहे है जितने के वो हकदार है?
अगर ये सवाल आप खुद से करें तो शायद जवाब ‘न’ ही होगा क्योंकि सच तो भगत सिंह पर आधारित फिल्म के उस फ़िल्मी डायलाग में छिपा है जिसमें भगत सिंह की भूमिका निभाने वाले भगत सिंह कहते है- ‘ आज ये अंग्रेज हमारे देश को खटमल की तरह चूस रहे है कल इस देश में जो भी सत्ता की गद्दी संभालेगा वो हर कोई इस देश को बर्बादी की राह पर ले जाएगा।
वैसे तो कहने को यह एक फ़िल्मी डायलाग है पर इस डायलाग में छिपी सच की मात्रा का आंकलन हम स्वं ही कर सकते है।
गुजारिश तो बस अब इतनी है कि आज का युवा ऐसे लोगों को देखकर इन क्रांतिकारियों के त्याग, बलिदान, आत्मसमर्पण की स्मृतियों को धूमिल न करें
“उसे यह फ़िक्र है हरदम,
नया तर्जे-जफ़ा क्या है?
हमें यह शौक देखें,
सितम की इंतहा क्या है?- भगत सिंह
इन्कलाब जिंदाबाद
(by charu khare)
ऑफ़बीट
बिहार का ‘उसैन बोल्ट’, 100 किलोमीटर तक लगातार दौड़ने वाला यह लड़का कौन
चंपारण। बिहार का टार्जन आजकल खूब फेमस हो रहा है. बिहार के पश्चिम चंपारण के रहने वाले राजा यादव को लोगों ने बिहार टार्जन कहना शुरू कर दिया है. कारण है उनका लुक और बॉडी. 30 मार्च 2003 को बिहार के बगहा प्रखंड के पाकड़ गांव में जन्मे राज़ा यादव देश को ओलंपिक में गोल्ड मेडल दिलाना चाहते हैं.
लिहाजा दिन-रात एकक़र फिजिकल फिटनेस के साथ-साथ रेसलिंग में जुटे हैं. राज़ा को कुश्ती विरासत में मिली है. दादा जगन्नाथ यादव पहलवान और पिता लालबाबू यादव से प्रेरित होकर राज़ा यादव ने सेना में भर्ती होने की कोशिश की. सफलता नहीं मिली तो अब इलाके के युवाओं के लिए फिटनेस आइकॉन बन गए हैं.
महज 22 साल की उम्र में राजा यादव ‘उसैन बोल्ट’ बन गए. संसाधनों की कमी राजा की राह में रोड़ा बन रहा है. राजा ने एनडीटीवी से कहा कि अगर उन्हें मौका और उचित प्रशिक्षण मिले तो वे पहलवानी में देश का भी प्रतिनिधित्व कर सकते हैं. राजा ओलंपिक में गोल्ड मेडल लाने के लिए दिन रात मैदान में पसीना बहा रहे हैं. साथ ही अन्य युवाओं को भी पहलवानी के लिए प्रेरित कर रहे हैं.
’10 साल से मेहनत कर रहा हूं. सरकार ध्यान दे’
राजा यादव ने कहा, “मेरा जो टारगेट है ओलंपिक में 100 मीटर का और मेरी जो काबिलियत है उसे परखा जाए. इसके लिए मैं 10 सालों से मेहनत करते आ रहा हूं तो सरकार को भी ध्यान देना चाहिए. मेरे जैसे सैकड़ों लड़के गांव में पड़े हुए हैं. उन लोगों के लिए भी मांग रहा हूं कि उन्हें आगे बढ़ाने के लिए सुविधा मिले तो मेरी तरह और युवक उभर कर आएंगे.”
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