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कर्नाटक का ‘नाटक’ पटाक्षेप के करीब

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भले ही देश की सर्वोच्च अदालत ने बहुमत के लिए जरूरी विधायक न होने के बावजूद किसी अकेली बड़ी पार्टी को राज्यपाल द्वारा आमंत्रित किए जाने के मुद्दे को न्यायिक समीक्षा के दायरे का बता 10 हफ्ते बाद सुनवाई का फैसला लिया हो, लेकिन 56 मिनटों में ही येदियुरप्पा के 15 दिनों में बहुमत सिद्ध करने की मियाद पर फैसला सुनाते हुए केवल 28 घंटों यानी शनिवार शाम 4 बजे तक का समय मुकर्रर कर यह जता दिया कि राज्यपाल के फैसले की वैधानिकता में जाने तथा और मौका दिए जाने से बेहतर होगा कि शनिवार को ही बहुमत पर सदन में फैसला कराया जाए।

इससे यह साबित हो पाएगा कि भाजपा के नवनियुक्त मुख्यमंत्री बी.एस. येदियुरप्पा के पास राज्य में विधायकों का पर्याप्त संख्याबल है या नहीं?

जस्टिस ए.के. सीकरी की अध्यक्षता वाली तीन न्यायाधीशों की पीठ, जिसमें जस्टिस एस.ए. बोबडे और न्यायमूर्ति अशोक भूषण भी हिस्सा थे, कहा, सदन को फैसला लेने दें और सबसे अच्छा तरीका शक्ति परीक्षण होगा। कोर्ट ने यह भी माना कि चुनाव पूर्व गठबंधन और चुनाव बाद गठबंधन का अलग-अलग प्रभाव होता है। पूर्व गठबंधन की सभी को जानकारी होती है, जबकि चुनाव बाद का गठबंधन हल्का होता है। लेकिन दोनों ही स्थितियां सदन ही तय करेगा।

सुप्रीम अदालत ने यही भी माना कि इसमें कोई संदेह नहीं कि मामला अंकों के खेल का है, जिसे राज्यपाल को संतुष्टि के साथ देखना होता है कि किसे बहुमत का समर्थन है। राज्यपाल के अधिकारों में हस्तक्षेप की मंशा नहीं है, लेकिन चूंकि भ्रम की स्थिति है, इसलिए दो ही रास्ते बचते हैं। जस्टिस बोबडे ने कहा कि मौका जिसे भी मिले सदन तो बहुमत की तरफ ही जाएगा। वहीं जस्टिस सीकरी ने भी कहा फ्लोर टेस्ट हो और सदन तय करे यही सबसे बेहतर रास्ता होगा।

अदालत ने माना कि संविधान ने राज्यपाल को उच्च शक्तियां दी हैं, लेकिन उन्होंने इनका इस्तेमाल खराब ढंग से किया है। अब सदन को फैसला करने दें। सबसे बेहतर तरीका सदन में बहुमत साबित करना ही होगा। मतदान गोपनीय मतपत्रों से नहीं होगा न ही बहुमत साबित होने तक राज्यपाल विनिशा नेरो को विधानसभा में एंग्लो इंडियन सदस्य के तौर पर मनोनीत कर पाएंगे और कोई नीतिगत फैसला कर पाएंगे।

कर्नाटक में भाजपा के पास 104, कांग्रेस के पास 78 और जेडीएस व बसपा के 38 विधायक मिलाकर कुल 116 हैं। बहुमत के लिए 112 का आंकड़ा जरूरी है। मौजूदा स्थिति में 222 सीटों पर हुए मतदान के नतीजों के अनुसार, कुमारस्वामी दो सीटों पर जीते, इसलिए सदन में 221 विधायक ही रहेंगे। उसमें भी एक प्रोटेम स्पीकर के रूप में होगा यानी मतदान में 220 विधायक भाग ले पाएंगे।

ऐसी स्थिति में दोनों ही दावेदारों के बीच सदन में मौजूद संख्या बल और विधायकों की अनुपस्थिति अहम होगी। अब इसे जुटाने या घटाने के लिए के लिए एक-एक पल कर्नाटक की राजनीति में नया गुल खिलाने को काफी होगा। निश्चित रूप से लोकतंत्र के इस दिलकश नजारे का सभी बेसब्री से इंतजार कर रहे हैं।

यकीनन, दुनिया में भारत ही ऐसा लोकतंत्र होगा, जहां एक गैर-निर्वाचित और केंद्र सरकार द्वारा मनोनीत राज्यपाल को ढेरों अधिकार प्राप्त हैं। इनके दम पर चाहे जिसे सरकार बनाने, जब चाहे संवैधानिक मशीनरी के ठप्प हो जाने का बहाना बनाकर एक निर्वाचित सरकार को बर्खास्त करने की सिफारिश की जाती है।

सन् 1935 में भारत सरकार अधिनियम बनाकर राज्यों में चुनावों के जरिए सरकारों के गठन की व्यवस्था की गई थी। राज्य सरकारों को केंद्र की औपनिवेशिक सरकार के जरिए काबू में रखने के लिए ही राज्यपाल का पद बनाया गया था, जिसका उस समय तो कांग्रेस ने जमकर विरोध किया, लेकिन स्वतंत्रता के बाद भी अपने पूरे शासनकाल में इसे बरकरार रखा। तब संविधान सभा में भी बहुत तीखी और कड़वी बहसें हुईं, पर नतीजा कुछ नहीं निकला।

यह राज्यपाल के पद का दुरुपयोग ही था, जो 1952 में पहले आम चुनाव के बाद ज्यादा विधायकों वाली संयुक्त मोर्चे के बजाय कम विधायकों वाली कांग्रेस के सी. राजगोपालाचारी को सरकार बनाने का न्यौता दिया जो विधायक तक नहीं थे। इसी तरह 1954 में पंजाब की कांग्रेस सरकार को केवल इसलिए बर्खास्त किया गया, क्योंकि मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री के बीच मतभेद थे।

वहीं सन् 1959 में केरल की नम्बूदिरीपाद सरकार भी बर्खास्त की गई। इस तरह सत्तारूढ़ पार्टी द्वारा राज्यपालों को अपने एजेंट की तरह उपयोग किए जाने की फेहरिस्त लंबी होती चली गई।

अब चाहे कर्नाटक की ताजा स्थिति को लें या गोवा, मेघालय और मणिपुर की थोड़ा पहले की सियासी तस्वीरों को देखें। राज्यपाल की भूमिका को लेकर इन चारों कड़ियों में कोई खास अंतर नहीं दिखता है। राज्यपाल की भूमिका और सत्तारूढ़ दल को लेकर 10 हफ्तों बाद एक बार फिर सबकी नजर सर्वोच्च अदालत पर होगी, लेकिन फिलहाल कर्नाटक के इस नए नाटक का पटाक्षेप का सभी को बेसब्री से इंतजार है, जिसका समापन शनिवार शाम 4 होना है। देखना यह है कि पटाक्षेप किस रूप में होता है! (लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं)

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पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा में बड़ा आतंकी हमला, 38 लोगों की मौत

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पख्तूनख्वा। पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा में बड़ा आतंकी हमला हुआ है। इस हमले में 38 लोगों की मौत हो गई है। यह हमला खैबर पख्तूनख्वा के डाउन कुर्रम इलाके में एक पैसेंजर वैन पर हुआ है। हमले में एक पुलिस अधिकारी और महिलाओं समेत दर्जनों लोग घायल भी हुए हैं। जानकारी के मुताबिक उत्तर-पश्चिमी पाकिस्तान के अशांत प्रांत खैबर पख्तूनख्वा में आतंकियों ने शिया मुस्लिम नागरिकों को ले जा रहे यात्री वाहनों पर गोलीबारी की है। यह क्षेत्र में हाल के वर्षों में इस तरह का सबसे घातक हमला है। मृतकों की संख्या में इजाफा हो सकता है।

AFP की रिपोर्ट के मुताबिक इस हमले में 38 लोगों की मौत हुई है. पैसेंजर वैन जैसे ही लोअर कुर्रम के ओचुट काली और मंदुरी के पास से गुजरी, वहां पहले से घात लगाकर बैठे आतंकियों ने वैन पर अंधाधुंध गोलियां बरसानी शुरू कर दीं. पैसेंजर वैन पाराचिनार से पेशावर जा रही थी। पाकिस्तान की समाचार एजेंसी डॉन के मुताबिक तहसील मुख्यालय अस्पताल अलीजई के अधिकारी डॉ. ग़यूर हुसैन ने हमले की पुष्टि की है.

शिया और सुन्नी मुसलमानों के बीच तनाव 

अफगानिस्तान की सीमा से लगे कबायली इलाके में भूमि विवाद को लेकर शिया और सुन्नी मुसलमानों के बीच दशकों से तनाव बना हुआ है। किसी भी समूह ने घटना की जिम्मेदारी नहीं ली है। जानकारी के मुताबिक “यात्री वाहनों के दो काफिले थे, एक पेशावर से पाराचिनार और दूसरा पाराचिनार से पेशावर यात्रियों को ले जा रहा था, तभी हथियारबंद लोगों ने उन पर गोलीबारी की।” चौधरी ने बताया कि उनके रिश्तेदार काफिले में पेशावर से यात्रा कर रहे थे।

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