आध्यात्म
बसंत पंचमी के दिन इस दिशा में स्थापित करें मां सरस्वती की मूर्ति, होगी ज्ञान की प्राप्ति
नई दिल्ली। सनातन धर्म में बसंत पंचमी के त्योहार को बेहद उत्साह के साथ मनाया जाता है। बसंत पंचमी के दिन ज्ञान की देवी मां सरस्वती की विधिपूर्वक पूजा-अर्चना करने का विधान है। इस बार माघ महीने में बसंत पंचमी का पर्व 14 फरवरी 2024 को मनाया जाएगा। मान्यता के अनुसार, इस खास अवसर पर मां सरस्वती की पूजा करने से साधक की मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं और ज्ञान, बुद्धि, धन, सुख और समृद्धि की प्राप्ति होती है।
अगर आप बसंत पंचमी के दिन मां सरस्वती की मूर्ति स्थापित कर रहे हैं, तो ऐसे में आपको वास्तु के नियमों का पालन करना बेहद आवश्यक है, जिससे आपको जीवन में शुभ फल की प्राप्ति होगी।
इस दिशा में स्थापित करें मूर्ति
वास्तु शास्त्र के अनुसार, मां सरस्वती की मूर्ति को स्थापित करने के लिए उत्तर दिशा को बेहद शुभ माना गया है। इसलिए मां सरस्वती की मूर्ति या तस्वीर उत्तर दिशा में लगाएं। माना जाता है कि इस दिशा में मूर्ति स्थापित या तस्वीर लगाने से शिक्षा संबंधी कार्यों में सफलता मिलती है और सभी काम बिना किसी रुकावट के पूर्ण होते हैं।
इस मुद्रा में होनी चाहिए मूर्ति
मां सरस्वती की मूर्ति या तस्वीर का चयन करते समय आप इस बात का विशेष ध्यान रखें कि मां सरस्वती की मूर्ति कमल पुष्प पर बैठी हुई मुद्रा में होनी चाहिए। खड़ी हुई मुद्रा में मां सरस्वती की मूर्ति की स्थापना करना शुभ नहीं माना जाता।
माता सरस्वती की मूर्ति सौम्य, सुंदर और आशीर्वाद वाली मुद्रा में होनी चाहिए। मूर्ति खंडित नहीं होनी चाहिए। ऐसा माना जाता है कि घर में खंडित मूर्ति की स्थपना करने से नकारात्मक ऊर्जा का वास होता है।
डिसक्लेमर: इस लेख में निहित किसी भी जानकारी की सटीकता या विश्वसनीयता की हमारी गारंटी नहीं है।
आध्यात्म
जानें भगवान गणेश की पूजा में क्यों नहीं किया जाता तुलसी का प्रयोग
लखनऊ। गणेश चतुर्थी के महापर्व की शुरुआत हो चुकी है। घर-घर में गणेश जी के आगमन से लोगों में काफी उत्साह छाया हुआ है। प्रथम पूज्य गणेश जी के भोग, और प्रसाद के बारे में तो सभी जानते हैं। यही नहीं हम सबने गणेश जी से सम्बंधित कई कथाएं भी सुनी है। लेकिन आज हम आपको ऐसी गणेश जी से संबंधित ऐसी कथा बतायेंगे जिसके बारे में शायद ही आप जानते हो। जी हाँ आज हम आपको बताएँगे की गणेश पूजन के दौरान तुलसी का प्रयोग क्यों नहीं किया जाता।
दरअसल, इसके पीछे एक पौराणिक कथा है। इस कथा के अनुसार एक बार गणपति जी गंगा किनारे तपस्या कर रहे थे। उसी गंगा तट पर धर्मात्मज कन्या तुलसी भी अपने विवाह के लिए तीर्थयात्रा करती हुईं, वहां पहुंची थी। गणेश जी रत्नजड़ित सिंहासन पर बैठे थे और चंदन के लेपन के साथ उनके शरीर पर अनेक रत्न जड़ित हार में उनकी छवि बेहद मनमोहक लग रही थी।
तपस्या में विलीन गणेश जी को देख तुलसी का मन उनकी ओर आकर्षित हो गया। उन्होंने गणपति जी को तपस्या से उठा कर उन्हें विवाह का प्रस्ताव दिया। तपस्या भंग होने से गणपति जी बेहद क्रोध में आ गए। गणेश जी ने तुलसी देवी के विवाह प्रस्ताव को ठुकरा दिया। गणेश जी से ना सुनने पर तुलसी देवी बेहद क्रोधित हो गईं, जिसके बाद तुलसी देवी ने गणेश जी को श्राप दिया कि उनके दो विवाह होंगे।
वहीं गणेश जी ने भी क्रोध में आकर तुलसी देवी को श्राप दिया कि उनका विवाह एक असुर से होगा। ये श्राप सुनते ही तुलसी जी को अपनी भूल का एहसास हुआ और वह गणेश जी से माफी मांगने लगीं। तब गणेश जी ने कहा कि तुम्हारा विवाह शंखचूर्ण राक्षस से होगा, लेकिन इसके बाद तुम पौधे का रूप धारण कर लोगी। ना तुम्हारा शाप खाली जाएगा ना मेरा। मैं रिद्धि और सिद्धि का पति बनूंगा और तुम्हारा भी विवाह राक्षस से होगा। लेकिन अंत में तुम भगवान विष्णु और श्री कृष्ण की प्रिया बनोगी और कलयुग में भगवान विष्णु के साथ तुम्हें पौधेे के रूप में पूजा जाएगा लेकिन मेरी पूजा में तुलसी का प्रयोग नहीं किया जाएगा।
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