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“कैकेयी बनीं राम की मर्यादा यात्रा की पाथेय: डॉ. रहीस सिंह की कृति ‘कैकेयी के राम’

समीक्षक: अशोक कुमार मिश्र

कैकेई के अभिशाप से भगवान श्री राम की वन गमन यात्रा कैसे वरदान बनी, इसे समझने के लिए ख्यातिलब्ध लेखक, वरिष्ठ पत्रकार एवं मोटिवेशनल स्पीकर डॉ रहीस सिंह की वाणी प्रकाशन से प्रकाशित नवीनतम कृति ‘कैकेयी के राम’ अवश्य पढ़ना चाहिए। इस औपन्यासिक कृति का लोकार्पण इसी माह लखनऊ में आयोजित पुस्तक मेले में हुआ। अयोध्या के सिद्ध पीठ हनुमतधाम के पीठाधीश्वर आचार्य मिथिलेश

नंदिनीशरण जी महराज की उपस्थिति में विमोचन के समय पुस्तक मेले का संपूर्ण पंडाल राममय हो गया था व आयोजित समारोह उत्सव की तरह लगने लगा था। डॉ रहीस सिंह जी कहते है कि इस पुस्तक को लिखने की दृष्टि उन्हें पूज्य संतों, गुरुओं व स्वयं भगवान ने दी, जिसके चलते यह संभव हो पाया।

पिछले लगभग साढ़े तीन दशकों के लम्बे कालखण्ड में डॉ रहीस सिंह कई हजार कॉलम लिखे जिन्हें देश के प्रतिष्ठित हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं ने सम्माननीय स्थान दिया और देश की बहुत सी प्रतिष्ठित संस्थाओं ने लेक्चरर्स ऑर्गेनाइज किए। इस कालखण्ड में उन्होंने इतिहास, संस्कृति, अंतरराष्ट्रीय सम्बंध और विदेश नीति पर केन्द्रित दो दर्जन से अधिक पुस्तकें लिखीं, जिन्हें राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय संस्थानों द्वारा प्रकाशित किया गया। ‘कैकेयी के राम’ इस श्रृंखला में एक नवीन रत्न है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जी के मीडिया सलहकार डॉ रहीस सिंह की आगामी पुस्तक ‘बलूचिस्तान’ पर केन्द्रित है।

विश्व मानव प्रज्ञा में शायद ही कोई नर या नारायण एक पात्र के रूप में इतना लिखा, पढ़ा, समझा और व्याख्यायित हुआ हो जितना राम है। लेकिन, राम की चेतना, उसके लौकिक पक्ष को समझने के लिए लोकदृष्टि आवश्यक है जो मनुष्य के रूप में उन्हें परखने, विवेचित करते समय हिचक न रखे। ‘कैकेयी के राम’ की यात्रा इसी दिशा में है। यह एक औपन्यासिक कृति है जिसका सारतत्तव राम की वह यात्रा है जो उन्हें दशरथ कुमार से मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम की पूर्णता तक ले जाती है। इसके केन्द्र में एक प्रश्न भी है कि इस यात्रा की पाथेय राम की मझली माँ कैकेयी थीं और राम इस सत्य से पूरी तरह अवगत भी थे, फिर यह संसार इस सत्य को स्वीकार क्यों नहीं कर पाया। ‘तापस वेश विशेष’ के साथ वन की सम्पूर्ण यात्रा राम के मूल्यों और आदर्शों के साथ-साथ मर्यादा, सहनशीलता, आदर, सामूहिकता, समभाव, समरसता, सहजता, सरसता, न्यायप्रियता, संघर्ष और साहस के प्रतिमानों की संस्थापनाओं की यात्रा थी, राम पथ से लेकर राम सेतु तक सब इसी के बिम्ब हैं। उनके परमेश्वर होने का मानवीय सर्वोच्च भी यही था, जिसे उन्होंने इस संसार को प्रतिदान में दिया। यह पुस्तक इस यात्रा के सम्पूर्ण कालखण्ड को संवादों के माध्यम से उस लोकमानस के मन को छूने का प्रयास करती है जिसके आधार राम हैं और जिसे वे संवादों के माध्यम से संस्कृति की एक विराट माला में गूँथते हैं। एक ऐसी माला में जो भारतीय मानस में उनके आदर्शों की ही नहीं बल्कि उनके त्याग की निधि से निर्मित सुगन्ध को अतीत से लाकर वर्तमान में बिखेर सके और लोक मन को सहज कर सके, उसे स्पन्दित कर सके।

डॉ रहीस सिंह की यह कृति ऐसे अनेक रोचक संवाद, दृष्टि और मीमासांओं से भरी है जो राम को लोक के लिए और सहज और ग्रा्हय बनाती है व आचरण का भाग बनने के लिए प्रेरित करती है। अगर कैकेई न होतीं तो भगवान श्रीराम अयोध्या से न निकलते और न ही उन्हें हनुमानजी जैसा भक्त मिलता। रावण के चरित्र से भी अंजान रह जाते। 270 पेज की इस पुस्तक में 11 पेज की प्रस्तावना के साथ 15 अध्याय है, जिसमें पूर्णोऽहम, ध्येय पूर्ण हुआ, कारण मैं ही हूँ, शरणागत नहीं परपुरंजय, जाकर नाम सुनत सुभ होई, इस होम में मेरी समिधा यही है, यह अन्त नहीं आरम्भ है, परीक्षा की प्रतीक्षा, एवमस्तु, यहीं ठहर जाओ सूत, मुदित गयउ लेई पार, तमसा के तपस्वी, सत्य से साक्षात्कार का मंगलाचरण, वे उठे और चल पड़े…के माध्यम से विस्तार से बताया गया है।

इस पुस्तक में माता कैकेई को बनवास का अभिप्राय बताते हुए श्री राम कहते हैं कि ‘यदि आपने मुझे वन जाने का आदेश पिताश्री के माध्यम से न दिया होता तो मुझे पता ही नहीं चलता कि इस राष्ट्र की रक्षा सैनिक ही नहीं आटविक भी करते हैं, योद्धा ही नहीं ऋृषि भी करते हैं, अंतेवासी ही नहीं वनवासी भी करते हैं। इसके समृद्ध और सुदीर्घ होने की कामना केवल राजसिंहासन पर विराजे हुए राजा ही नहीं करते हैं अपितु उसे देश की सीमाओं के भीतर रहने वाली वन्य जातियां और पशु-पक्षी भी करते हैं। बस वे कभी अपना भाग आपसे मांगने नहीं आते, वे तो परमार्थ को ही अपना पुरुषार्थ समझते हैं।’ कैकेयी कहती हैं कि हे राम मेरा जो भी था वह मैंने राम बनाने में तुम्हें अर्पित कर दिया है। यह संसार मुझे कैसे सोचेगा यह मुझे नहीं इस संसार को सोचना है।

राम त्रिलोकदर्शी हैं, लेकिन वे पेड़-पौधों, पशुओं, पक्षियों से माता सीता का पता पूछ रहे हैं, वे तीन पग में पूरा ब्रह्मांण नाम लेते हैं, लेकिन वे केवट से प्रार्थना करते हैं कि उन्हें गंगा पार करा दीजिए। यह लोक संवेदनाएं उन्हें प्रतिमान बनाकर स्थापित करने का कार्य स्वयं श्रीराम सहज रूप से करते रहे। राम ने अपने पुरुषार्थ, अपनी करुणा, अपनी दया, अपनी मर्यादा अपने मूल्य से संसार रचा आज हम कथा सुनते हैं, स्मरण करते हैं। अगर हम उन्हीं लोक मर्यादाओं, संवेदनाओं के लिए कुछ कर लें तो हमारा जीवन सार्थक हो जाएगा। कैकेयी के राम सबके राम हैं, वे राजाराम नहीं वे तपस्वी राम है, वे त्याग की प्रतिमूर्ति राम हैं। ऐसी पुस्तक लम्बे समय तक अपने पाठकों के बीच जीवित रहती है।

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