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पानी की चिन्ता तो खुद ही करनी होगी
स्वच्छ और भरपूर पानी के बगैर, न तो 100 स्मार्ट सिटी का सपना साकार हो सकता है और न औद्योगिक निवेश व विकास का। चाहे नमामि गंगे का संकल्प पूरा करना हो या स्वच्छ भारत अभियान को अंजाम तक पहुंचाना हो, निर्मल जल के बगैर वह भी सम्भव नहीं। फिल्टर, आरओ और बोतलबन्द पानी के भरोसे विकास का पहिया चल नहीं सकता। विकास की चिन्ता करनी है, तो पानी की चिन्ता तो करनी ही होगी।
कहा जाता है कि भारत में पानी की कमी नहीं, पानी के प्रबन्धन में कमी है। किन्तु क्या पानी का प्रबन्धन सरकारों को कोसने से ठीक हो सकता है? हकीकतन, यह न सरकारों को कोसने से ठीक हो सकता है, न रोने से और न किसी के चीखने-चिल्लाने से। हमें इस भ्रम में भी नहीं रहना चाहिए कि नोट या वोट हमें पानी पिला सकते हैं। वोट पानी पिला सकता, तो देश में सबसे ज्यादा वोट वाले उत्तर प्रदेश के बाँदा-महोबा-हमीरपुर में पानी की कमी के कारण आत्महत्याएँ न होतीं। सिर्फ नोट से ही यदि पानी का सुप्रबन्धन सम्भव होता, तो सबसे अधिक बाँध और हमारी पंचवर्षीय योजनाओं में पानी का सबसे अधिक बजट खाने वाले महाराष्ट्र, इस वर्ष गर्मी आने से पहले ही सिंचाई और पेयजल का संकट से बेजार नहीं होता।
हकीक़त यह है कि हमें हमारी जरूरत का कुल पानी न समुद्र पिला सकता है, न ग्लेशियर, न नदियाँ, न झीलें और न हवा व मिट्टी में मौजूद नमी। पृथ्वी में मौजूद कुल पानी में सीधे इनसे प्राप्त मीठे पानी की हिस्सेदारी मात्र 0.325 प्रतिशत ही है। आज भी पीने योग्य सबसे ज्यादा पानी (1.68 प्रतिशत) धरती के नीचे भूजल के रूप में ही मौजूद है।
हमारी धरती के भूजल की तिजोरी इतनी बड़ी है कि इसमें 213 अरब घन लीटर पानी समा जाए और हमारी जरूरत है मात्र 160 अरब घन लीटर। अब ऐसे में भी यदि इसमें से निकासी ज्यादा हो और संचय कम, तो कोई भी पानी खातेदार कंगाल होगा ही होगा। हम भूल गए कि पानी का काम कभी अकेले नहीं हो सकता। पानी एक साझा उपक्रम है। अतः इसका प्रबन्धन भी साझे से ही सम्भव है।
चुनौती यह भी है कि जलसंसाधनों के सरकारी होते ही लोगों ने इन्हें पराया मान लिया। हालांकि ‘जिसकी भूमि, उसका भूजल’ का निजी अधिकार पहले भी भूमालिकों के हाथ था और आज भी लेकिन भूजल का अदृश्य भण्डार हमें दिखाई नहीं देता। हमारा समाज आज भी यही मानता है कि जल-जंगल के सतही स्रोत सरकार के हैं। अतः पानी पिलाना, सिंचाई व जंगल का इन्तज़ाम उसी के काम हैं वही करे। अभी आम धारणा यह है कि सार्वजनिक ज़रूरतों की पूर्ति करना शासन-प्रशासन का काम है। उनके काम में दखल देना… कानून अपने हाथ में लेना है।
जबकि असल जरूरत, यह याद करने की है कि जवाबदारी निभाने से हकदारी खुद-ब-खुद आ जाती है? याद रखने की जरूरत यह भी है कि कुदरत की सारी नियामतें सिर्फ इंसान के लिये नहीं हैं, दूसरे जीव व वनस्पतियों का भी उन पर बराबर का हक है। अतः उपयोग की प्राथमिकता पर हम इंसान ही नहीं, कुदरत के दूसरे जीव व वनस्पतियों की प्यास को भी सबसे आगे रखें। यही रास्ता है, यही समाधान।
नेशनल
मशहूर लोक गायिका शारदा सिन्हा का निधन, दिल्ली एम्स में ली अंतिम सांस
नई दिल्ली। मशहूर लोक गायिका शारदा सिन्हा का निधन हो गया है। दिल्ली के एम्स में आज उन्होंने अंतिम सांस ली। वह लंबे समय से बीमार चल रहीं थी। एम्स में उन्हें भर्ती करवाया गया था। शारदा सिन्हा को बिहार की स्वर कोकिला कहा जाता था।
गायिका शारदा सिन्हा को साल 2018 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था। शारदा सिन्हा का जन्म 1 अक्टूबर, 1952 को सुपौल जिले के एक गांव हुलसा में हुआ था। बेमिसाल शख्सियत शारदा सिन्हा को बिहार कोकिला के अलावा भोजपुरी कोकिला, भिखारी ठाकुर सम्मान, बिहार रत्न, मिथिलि विभूति सहित कई सम्मान मिले हैं। शारदा सिन्हा ने भोजपुरी, मगही और मैथिली भाषाओं में विवाह और छठ के गीत गाए हैं जो लोगों के बीच काफी प्रचलित हुए।
शारदा सिन्हा पिछले कुछ दिनों से एम्स में भर्ती थीं। सोमवार की शाम को शारदा सिन्हा को प्राइवेट वार्ड से आईसीयू में अगला शिफ्ट किया गया था। इसके बाद जब उनकी हालत बिगड़ी लेख उन्हें वेंटिलेटर सपोर्ट पर रखा गया। शारदा सिन्हा का ऑक्सीजन लेवल गिर गया था और फिर उनकी हालत हो गई थी। शारदा सिन्हा मल्टीपल ऑर्गन डिस्फंक्शन स्थिति में थीं।
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