नेशनल
हिन्दी भाषा एवं भारत का संविधान
डा0 रचना श्रीवास्तव
एसोसिएट प्रोफेसर
ए0 पी0 सेन मेमोरियल गर्ल्स कालेज
लखनऊ
भाषा देश की विशिष्टता की पहचान कराती है। इतिहास साक्षी है कि जिस देश की भाषा समृद्ध है, वह प्रगति के मार्ग पर अग्रसर हुआ है। ‘हिन्दी हैं हम वतन है हिन्दोस्तॉं हमारा’ प्रख्यात गीत की इस पंक्ति से हम सभी परिचित हैं किन्तु विडम्बना है कि आज तक हिन्दी को वह सम्मान प्राप्त नहीं हो सका है जिस पर उसका अधिकार है। सर्वविदित है कि अंग्रेजों ने लगभग 200 वर्षों तक भारत पर शासन किया। इस काल में हम भारतीयों के जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में (खानपान, रहनसहन, बोलचाल) अंग्रेजियत इतनी रच बस गई कि आजादी के 68 वर्षो बाद भी हम उसके मोहपाश में बधंे हुए हैं और हिन्दी को उचित सम्मान नहीं दे पा रहे है।
14 सितम्बर 1949 को संवैधानिक रुप से हिन्दी को राजभाषा का दर्जा दिया गया। संविधान के अनुच्छेद 343 में यह प्राविधान किया गया है कि देवनागरी लिपि में हिन्दी भारत की राजभाषा होगी। तबसे प्रत्येक वर्ष 14 सितम्बर को हिन्दी दिवस के रुप में मनाया जाता है। वर्तमान में हिन्दी एवं मिलती जुलती भाषा 45 प्रतिशत् भारतीयों द्वारा बोली जाती है। भारतीय संविधान में भाषा के विषय में स्पष्ट वर्णन है। 1950 में निर्मित भारतीय संविधान के अनुसार देवनागरी लिपि में हिन्दी भारत की राजभाषा होगी, किन्तु केन्द्र के सभी सरकारी कार्यो में अंग्रेजी भी समान रुप से प्रयुक्त की जाएगी। यह व्यवस्था 15 वर्षो तक (26 जनवरी 1965) बनी रहेगी। इसके बाद हिन्दी एकमात्र राजभाषा बन जाएगी, किन्तु गैर हिन्दी भाषी राज्यों (महाराष्ट्र, तमिलनाडु, पंजाब, पश्चिम बंगाल, आंध्रप्रदेश) के तीव्र विरोध के कारण ‘आफीसियल लैंग्वेज एक्ट 1963‘ पारित हुआ जिसके अनुसार अंग्रेजी का प्रयोग तब तक चलता रहेगा जब तक संसद के दोनो सदन एवं प्रत्येक गैर हिन्दी भाषी राज्य की विधायिका इस आशय का प्रस्ताव न पारित कर दे।
1976 में ‘आफीसियल लैग्वेज रुल्स’ कानून बना जो स्पष्ट करता है कि केन्द्र सरकार हिन्दी एवं अंग्रेजी का कहॉं-कहॉं और किस हद तक प्रयोग करेगी। संविधान के अनुसार संसदीय र्कायवाही (बहस आदि) की भाषा हिन्दी अथवा अंग्रेजी रहेगी। अध्यक्ष की सहमति से कोई सांसद अपनी मातृ भाषा में भी संसद की कार्यवाही में भाग ले सकता है, किन्तु कानून अथवा विधेयक की भाषा तब तक अंग्रेजी ही रहेगी जब तक संसद किसी अन्य भाषा के लिए प्रस्ताव पारित न कर दे। इस विषय में संसद ने मात्र नियम बनाया है कि सभी कानूनो एवं विधेयकों को हिन्दी में अनुवाद किया जाएगा हालांकि संदर्भ के लिए अंग्रेजी प्रारुप ही मान्य होगा।
‘आफीसियल लैंग्वेज एक्ट‘ के अनुसार क्रेन्द्र सरकार जनता से संबंन्धित प्रपत्रों में हिन्दी एवं अंग्रेजी दोनों का प्रयोग करेगी। ‘आफीसियल लैग्वेज रुल्स‘ के अनुसार केन्द्र सरकार के विभिन्न कार्यालयो में (तमिलनाडु को छोडकर) अधिकाधिक हिन्दी का प्रयोग होगा। यदि केन्द्र सरकार के किसी विभाग का पत्र व्यवहार हिन्दी भाषी राज्य से हो रहा है, तो वह हिन्दी में ही होगा और यदि गैर हिन्दी भाषी राज्य से हो रहा है तो वह हिन्दी अथवा अंग्रेजी में हो सकता है किन्तु आवश्यकतानुसार दूसरी भाषा में उसका अनुवाद भी संलग्न होगा।
इसके अतिरिक्त यदि भारत के किसी व्यक्ति को कोई शिकायत या प्रार्थनापत्र देना है ता वह अपनी मातृभाषा (भारत में प्रयोग की जाने वाली कोई भी भाषा) में दे सकता है। 1976 में गठित संसदीय समिति समय समय पर हिन्दी की उन्नति पर राष्ट्रपति को रिपोर्ट प्रेषित करती है। प्रयास यही रहता है कि प्रत्येक वर्ष हिन्दी का सरकारी कार्यो में प्रयोग वढ जाए। जहॉं तक राज्य सरकारों का प्रश्न है, संविधान ने राज्य विधान सभाओं को स्वतंत्रता दी है कि वे अपनी राजभाषा (सरकारी कार्यों की भाषा) हिन्दी अथवा किसी अन्य भाषा को बना सकते है। राज्यों की विधायी कार्यवाही की भाषा हिन्दी, अंग्रेजी, अथवा उस राज्य की राजभाषा हो सकती है, आवश्यक नहीं है कि वह भारत की 8वीं अनुसूची में सम्मिलित हो।
स्पीकर की सहमति से सदस्य अपनी मातृभाषा में भी कार्यवाही में भाग ले सकते हैं। किन्तु सभी विधेयक एवं कानून अंग्रेजी में ही होंगें और यदि किसी दूसरी भाषा में प्रारुप है तो उसका अंग्रेजी अनुवाद आवश्यक है। केन्द्र की भॉंति राज्यों में भी यदि कोई व्यक्ति शिकायत के लिए प्रार्थनापत्र देता है तो वह किसी भी भाषा में दे सकता है। राज्य सरकारों से अपेक्षा की जाती है कि बच्चों की प्राथमिक शिक्षा उनकी मातृभाषा में उपलब्ध करांए।
न्यायपालिका की कार्यवाही की भाषा के संवंध में राज्यों के हाथ बधें हैं। संविधान के अनुसार, राष्ट्रपति की सहमति से राज्यपाल तय करेंगें कि संबन्धित उच्च न्यायालय में कार्यवाही किस भाषा में होगी – हिन्दी, अंग्रेजी अथवा उस राज्य की मातृभाषा। यही नियम उच्चन्यायालयों द्वारा दिए जाने वाले फैसलों पर भी लागू होता है। इस क्रम में चार राज्यों के उच्च न्यायालयों (बिहार, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, एवं राजस्थान) को हिन्दी में तथा तमिलनाडु उच्च न्यायालय में तमिल में बहस करने की अनुमति प्रदान की गई है।
भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में 22 भाषाओं का वर्णन है। ‘मूल संविधान में 14 भाषाओं का उल्लेख था। 1967 में सिन्धी जोड़ी गई। कोंकणी, मणिपुरी, और नेपाली को 1992 में शामिल किया गया। डोगरी, मैथिली, सन्थाली तथा बोडो को 92वॉं संविधान संशोधन विधेयक (मई 2008) के द्वारा जोड़ा गया है। केन्द्र सरकार का उत्तरदायित्व है कि वह इन सभी भाषाओं को समृद्ध करने के प्रभावशाली कदम उठाए जिससे कि ज्ञान का समुचित संचरण हो सके। साथ ही संघ लोक सेवा आयोग द्वारा संपन्न परीक्षाओं में अभ्यर्थी इन 22 में से किसी भी भाषा में उत्तर लिख सकता है। आठवीं अनुसूची की 22 भाषाओं एवं जिन राज्यों में वे बोली जाती है, उनका वर्णन निम्न प्रकार है।
1. असमिया- असम, अरुणाचल प्रदेश
2. बंगाली- पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा, असम, झारखण्ड, अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह
3. बोडो- असम
4. डोगरी- जम्मू-कश्मीर
5. गुजराती- गुजरात, दादरा नगर हवेली, दमन एवं दीव,
6. हिन्दी- अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह, बिहार, छत्तीसगढ, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, मध्यप्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, उत्तरप्रदेश, एवं उत्तराखंड
7. कन्नड़- कर्नाटक
8. कश्मीरी- जम्मू कश्मीर
9. कोंकणी- गोवा
10. मैथिली- बिहार
11. मलयालम- केरल, लक्षद्वीप, पुडुचेरी
12. मणिपुरी(मीठी)- मणिपुर
13. मराठी- महाराष्ट्र, गोआ, दादरानगर हवेली, दमन एवं दीव
14. नेपाली- सिक्किम
15. उडि़या- ओडिशा
16. पंजाबी- चंडीगढ़, दिल्ली, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, जम्मू पंजाब, राजस्थान, उत्तराखण्ड
17. संस्कृत- उत्तराखण्ड
18. संथाली- छोटा नागपुर पठार, बिहार, छत्तीसगढ, झारखंड, उडीसा
19. सिन्धी- सिन्ध (पाकिस्तान बार्डर)
20. तमिल- तमिलनाडु, अंडमान निकोबार,
21. तेलुगू- आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, पांडुचेरी, अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह
22. उर्दू- जम्मू कश्मीर, तेलंगाना, दिल्ली, बिहार एवं उत्तर प्रदेश
2003 में गठित समिति इस संभावना पर विचार कर रही है कि आंठवी अनुसूची में सम्मिलित सभी भाषाओं को ‘केन्द्र की सरकारी भाषा’ का दर्जा दिया जा सकता है या नहीं। आठवीं अनुसूची से संबंन्धित संवैधानिक प्राविधान अनुच्छेद 344(1) एवं अनुच्छेद 351 में वर्णित है। इसके अनुसार केन्द्र सरकार का दायित्व है कि अन्य भाषाओं को आधार बनाकर हिन्दी की अधिकाधिक प्रगति की जा सके।
भारत में कुल 780 भाषाएं बोली जाती है। वर्तमान समय में 38 अन्य भारतीय भाषाओं को आठवीं अनुसूची में सम्मिलित करने की मॉंग है।
1949 से लेकर अब तक हिन्दी ने लंबा सफर तय किया है। भारत की सीमा पार कर इसने विदेशों में भी घुसपैठ बना ली है। विदेश में हिन्दी बुक स्टोर्स खुल रहे है। कई प्रकाशक अप्रवासी भारतीयों की पुस्तकें बढ़चढ़ कर छाप रहे हैं। हिन्दी लेखन में इन दिनों संभावना बढ़ रही है। हिंदीतर राज्यों के लेखक वर्ग में यह बात शिद्दत से महसूस की जाने लगी है कि देश के बहुसंख्यक लोग तभी पढ़ेगें, जब आपका लेखन हिंदी में होगा।
हिन्दी उपन्यासों के एक मराठी पाठक शिशिर देशमुख सवाल करते हैं कि यदि अमृता प्रीतम की रचनाएं हिन्दी में नहीं आतीं, तो क्या वे समूचे देश में इतनी लोकप्रिय हो पातीं? क्या वृदांवन की बंगाली विधवाओं की भयावह स्थिति के बारे में लोग इतनी गहराई से जान पाते, यदि असम की लेखिका इंदिरा रायसम गोस्वामी की पुस्तक का हिन्दी अनुवाद उपलब्ध नहीं होता?। असम की लेखिका मोमानी पतंगया के अनुसार ‘महज एक दशक पहले तक हिन्दीतर राज्यों में हिन्दी का विरोध चरम पर था। दक्षिण भारत ही नहीं, पूर्वोत्तर राज्यों में भी हिन्दी के बहिष्कार और तरह तरह से विरोध की आवाजें सुनाई पड़ती थीं, पर यह विरोध लौ बुझाने में कामयाब नहीं हुआ, बल्कि यह हिन्दी को सम्पूर्ण राष्ट्र की भाषा बनाने के समर्थन में तब्दील हो गया।
निश्चित रुप से सरकारी प्रयास एवं लेखकों के उदारवादी चिंतन के माध्यम से हिन्दी का भविष्य उज्जवल दिख रहा है। विश्व के सभी देश अपनी मातृभाषा के बल पर विकसित की श्रेणी में आ गए है। दुनिया में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा चाइनीज मैण्डरिन है। जब चाइना, जापान आदि देश निज भाषा का अवलम्बन लेकर इतना आगे वढ़ सकते है, तो भारत क्यों नही? आवश्यकता इस बात की है कि हम झूठी अंग्रेजियत के गुलाम बनना छोड़कर अपनी भाषा पर गर्व करें। चाहे रिजर्वेशन स्लिप भरना हो, अथवा अन्य कोई कार्य करना हो हिन्दी का अधिकाधिक प्रयोग किया जाए। अपनी मातृभाषा पर हम गर्व करें एवं राष्ट्र के विकास में योगदान दें।–
‘जिसको न निज भाषा का, न निज देश का अभिमान है
वह नर नहीं पर पशु निरा और मृतक समान है‘
नेशनल
हिंदू राष्ट्र बनाना है तो हर भेद को मिटाकर हर सनातनी को गले से लगाना होगा -“पंडित धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री”
राजस्थान। राजस्थान के भीलवाड़ा में बुधवार (6 नवंबर) से पंडित धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री की पांच दिवसीय हनुमंत कथा शुरू हुई. यहां बागेश्वर सरकार अपने मुखारविंद से भक्तों को धर्म और आध्यात्मिकता का संदेश देंगे. छोटी हरणी हनुमान टेकरी स्थित काठिया बाबा आश्रम के महंत बनवारीशरण काठियाबाबा के सानिध्य में तेरापंथनगर के पास कुमुद विहार विस्तार में आरसीएम ग्राउंड में यह कथा हो रही है.
इस दौरान बागेश्वर धाम सरकार ने भी मेवाड़ की पावन माटी को प्रणाम करते हुए सबका अभिवादन स्वीकार किया. हनुमंत कथा कहते हुए बागेश्वर धाम सरकार धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री महाराज ने हिंदू एकता और सनातन जागृति का संदेश दिया.
उन्होंने कहा, “हनुमानजी महाराज की तरह भेदभाव रहित होकर सबको श्रीरामजी से जोड़ने के कार्य से प्रेरणा लेते हुए सनातन संस्कृति से छुआछूत जातपात के भेदभाव को मिटाना है. अगर हिंदू राष्ट्र बनाना है तो हर भेद को मिटाकर हर सनातनी को गले से लगाना होगा. व्यास पीठ पर आरती करने का हक सभी को है. इसी के तहत भीलवाड़ा शहर के स्वच्छताकर्मी गुरुवार को व्यास पीठ की आरती करेंगे.”
हिंदू सोया हुआ है
बागेश्वर धाम के पंडित धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री ने कहा कि वर्तमान समय में हिंदू की बुरी दशा है। कुंभकर्ण के बाद कोई सोया है तो वह हिंदू सोया है। अब हिंदुओं को जागना होगा और घर से बाहर निकलना होगा। धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री ने कहा कि हमारे तन में जब तक प्राण रहेंगे तब तक हम हिंदुओं के लिए बोलेंगे, हिंदुओं के लिए लड़ेंगे। अब हमने विचार कर लिया है कि मंच से हिंदू राष्ट्र नहीं बनेगा। उन्होंने कहा कि हमें ना तो नेता बनना है ना किसी पार्टी को वोट दिलाना है। हम बजरंगबली की पार्टी में है, जिसका नारा भी है- जो राम का नहीं वह किसी काम का नहीं।
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