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काश यूपी का फैसला देश का कानून होता..!

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ऋतुपर्ण दवे

उत्तर प्रदेश उच्च न्यायालय के फैसले ने केवल वहां नहीं बल्कि देश की समूची शिक्षा व्यवस्था की एक तरह से कलई खोल दी। निश्चित रूप से फैसला शिक्षा के क्षेत्र में एक क्रांतिकारी कदम साबित होगा और सरकारी स्कूलों की बदरंग से बदतर हुई तस्वीर भी सुधरेगी। देश में शिक्षा को लेकर अमीर-गरीब का फर्क भी टूटेगा और यदि ऐसा हो पाया तो इसमें कोई शक नहीं कि भारत शिक्षा के अनमोल रत्नों की खान बन जाएगा और देश की तस्वीर बदलेगी, हम फिर सोने की चिड़िया बन जाएंगे।

मौजूदा दोमुंही शिक्षा व्यवस्था को लेकर लोगों में दर्द है, पीड़ा है, गुहार भी लगाते हैं, हार जाते हैं क्योंकि शिक्षा भी माफियाओं के ऑक्टोपस जैसी जकड़ में है जितना काटते, तोड़ते हैं उतने ही नए पनपते जाते हैं। कहने की जरूरत नहीं देश में, पिछले 30 वर्षो में जिस तरह से बेशरम की मानिंद पब्लिक स्कूल, कान्वेन्ट स्कूल, मिशनरी स्कूल फले फूले हैं, वो किनके हैं, कितनी कमाई करते हैं और कमाई से किस तरह राजनीति और धर्म की दुकानें चमक रही हैं। यकीनन यह बड़ी बहस का मुद्दा होगा और होना भी चाहिए।

इस हकीकत को कौन झुठलाएगा कि 2 से 5 हजार रुपये की खातिर, बिना योग्यता और प्रशिक्षण के देश के नींव रूपी नौनिहालों को प्राथमिक, माध्यमिक शिक्षा दे रहे शिक्षक कितना कुछ कर पा रहे होंगे? नतीजा सामने है, सिर्फ उत्तर प्रदेश ही नहीं तमाम हिंदी भाषी और दूसरे प्रांतों में भी पहली और दूसरी कक्षा की बात तो दूर पांचवीं तक के विद्यार्थी अक्षरज्ञान और बारहखड़ी नहीं जानते।

लॉर्ड मैकाले के जमाने की शिक्षा प्रणाली को कथित रूप से दुरुस्त करने के लिए नित नए प्रयोगों और इस आड़ में योजनाओं के नाम पर खर्च और शिक्षकों में पद भेद ने सरकारी स्कूलों की रही-सही कसर को चौपट कर दिया है। शिक्षा के नाम पर फण्ड कम करने के तिकड़मों ने सीधे शब्दों में सरकारी स्कूलों की जिन्दा आत्मा को नारकीय कर दिया। सोचना होगा बिना भरपूर पगार, केवल पेट भरने की बमुश्किल जुगत में मजबूर शिक्षक कितना पढ़ाएगा?

बिना पेचीदगियों, नीतियों, नियमों, योजनाओं में गए साधारण सवाल कई हैं जो अनसुलझे हैं, अनुत्तरित हैं। इन्हें सुलझाने आका कभी आगे नहीं आए नतीजतन सरस्वती का प्रभाव सरकारी मंदिरों से जाता रहा। कम पगार में बेरोजगार अप्रशिक्षित शिक्षा मित्र, शिक्षा कर्मी, संविदा शिक्षक, अतिथि शिक्षक, गुरुजी बने सरकारी खजाने का शिक्षा बोझ घटाते लोग कैसी गुणात्मक शिक्षा देते होंगे, कहने की जरूरत नहीं।

देश के 64 प्रतिशत मजबूर, वंचित, शोषित तबके के नौनिहालों को इसी माहौल में बुनियादी शिक्षा मिल रही है। गुणवत्तापरक शिक्षा तो दूर पेट भरने को मजबूर शिक्षक क्या स्वस्थ मन-मस्तिष्क से पढ़ा पाते होंगे? ऐसे में राष्ट्रीय शिक्षा नीति भी बेमानी लगती है। सरकार ने मध्यान्ह भोजन योजना लागू की, गुणवत्ता तो दूर इसका फायदा बच्चों को कम इस आड़ में चलने वाले समूह, एनजीओ और नेताओं को ज्यादा हो रहा है। फटेहाल शिक्षक भी इसमें जुगाड़ देखते हैं।

सरकारी योजनाओं, सर्वेक्षणों को राष्ट्रीय महत्व बता इस काम में शिक्षकों को लगाकर, महीनों स्कूलों को रामभरोसे छोड़ पढ़ाई को और चौपट किया जाता है। सिवाए पढ़ाई के जनगणना, पशुगणना, जातिगतगणना, मतदाता सूची अपडेट, परिचय-पत्र, राशन कार्ड, बीपीएल जानकारी सब कुछ जुटाने, मतदान, मतगणना कराने सरकार के पास सबसे आसान शिक्षा महकमा है, पढ़ाने के बजाए किसी भी मोर्चे पर तैनात कर दो। भला ऐसे में शिक्षा व्यवस्था कैसे सुधरेगी?

सरकारी स्कूलों के बच्चों के कोमल मन पर भेदभाव और ग्लानि भी साफ दिखती है, पब्लिक स्कूल के बच्चे बड़ी-बड़ी बसों में हर दिन की अलग नई क्रीजदार ड्रेस में और ये मैली कुचली एक ही ड्रेस में। अंतर तभी समाप्त करना होगा जब अमीर-गरीब दोनों एक जगह पढ़ें। 90 फीसदी से ज्यादा लोगों की मंशा होगी कि उप्र उच्च न्यायालय का फैसला मील का पत्थर जरूर बने, देश भर के लिए ऐसा हो। लेकिन क्या यह हो पाएगा क्योंकि अभी ऊपरी अदालत का विकल्प जो बाकी है। सर्वविदित है कि सरकारी नीतियों, योजनाओं को बनाने, लागू कराने वाले, भारतीय लोकतंत्र के पहरुओं को उंगलियों पर नचाने, घुमाने और काम कराने वाली लालफीताशाहीपूर्ण व्यवस्था के चलते फैसला कितना असरकारक होगा कहना जल्दबाजी होगा।

शिक्षा के मौलिक अधिकार के नाम पर ऊंची अदालत में तर्क-वितर्क देकर क्या इसको अमल से रोका जाएगा यह भी देखना होगा। लेकिन इसमें दो राय नहीं कि उप्र उच्च न्यायालय ने पूरे देश की भावना को समझा है और शक भी नहीं कि आईएएसए, आईपीएस सहित अफसरशाहों, हुक्मरानों के बच्चे सरकारी प्राइमरी स्कूलों में अनिवार्य रूप से दाखिला लेंगे तो 6 महीने में ही इन स्कूलों की तस्वीर बदलने लगेगी, शिक्षा और शिक्षकों का फर्क खत्म होगा, देश की बुनियादी नींव मजबूत होगी और सच में देश एक सुनहरे कल की ओर जाएगा। कितना अच्छा हो, काश उत्तर प्रदेश का फैसला देश के लिए कानून बन जाए।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)

नेशनल

मशहूर लोक गायिका शारदा सिन्हा का निधन, दिल्ली एम्स में ली अंतिम सांस

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नई दिल्ली। मशहूर लोक गायिका शारदा सिन्हा का निधन हो गया है। दिल्ली के एम्स में आज उन्होंने अंतिम सांस ली। वह लंबे समय से बीमार चल रहीं थी। एम्स में उन्हें भर्ती करवाया गया था। शारदा सिन्हा को बिहार की स्वर कोकिला कहा जाता था।

गायिका शारदा सिन्हा को साल 2018 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था। शारदा सिन्हा का जन्म 1 अक्टूबर, 1952 को सुपौल जिले के एक गांव हुलसा में हुआ था। बेमिसाल शख्सियत शारदा सिन्हा को बिहार कोकिला के अलावा भोजपुरी कोकिला, भिखारी ठाकुर सम्मान, बिहार रत्न, मिथिलि विभूति सहित कई सम्मान मिले हैं। शारदा सिन्हा ने भोजपुरी, मगही और मैथिली भाषाओं में विवाह और छठ के गीत गाए हैं जो लोगों के बीच काफी प्रचलित हुए।

शारदा सिन्हा पिछले कुछ दिनों से एम्स में भर्ती थीं। सोमवार की शाम को शारदा सिन्हा को प्राइवेट वार्ड से आईसीयू में अगला शिफ्ट किया गया था। इसके बाद जब उनकी हालत बिगड़ी लेख उन्हें वेंटिलेटर सपोर्ट पर रखा गया। शारदा सिन्हा का ऑक्सीजन लेवल गिर गया था और फिर उनकी हालत हो गई थी। शारदा सिन्हा मल्टीपल ऑर्गन डिस्फंक्शन स्थिति में थीं।

 

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