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मी टू : सिर्फ पुरुषों को दोष देने से काम नहीं चलेगा

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पुरानी यादें हमेशा हसीन और खूबसूरत नहीं होती। ‘मी टू कैम्पेन’ के जरिए आज जब देश में कुछ महिलाएं अपनी जिंदगी के पुराने अनुभव साझा कर रही हैं, तो यह पल निश्चित ही कुछ पुरुषों के लिए उनकी नींद उड़ाने वाले साबित हो रहे होंगे और कुछ अपनी सांसें थामकर बैठे होंगे। इतिहास वर्तमान पर कैसे हावी हो जाता है, मी टू से बेहतर उदाहरण शायद इसका कोई और नहीं हो सकता।

दरअसल, इसकी शुरुआत 2006 में तराना बुरके नाम की एक 45 वर्षीय अफ्रीकी-अमेरिकी सामाजिक कार्यकर्ता ने की थी, जब 13 साल की एक लड़की ने उन्हें बातचीत के दौरान बताया कि कैसे उसकी मां के एक मित्र ने उसका यौन शोषण किया। तब तराना बुरके यह समझ नहीं पा रही थीं कि वे इस बच्ची से क्या बोलें। लेकिन वो उस पल को नहीं भुला पाईं, जब कहना चाह रही थीं- ‘मी टू यानी ‘मैं भी”, लेकिन हिम्मत नहीं कर पाईं।

शायद इसीलिए उन्होंने इसी नाम से एक आंदोलन की शुरुआत की, जिसके लिए वे 2017 में ‘टाइम परसन ऑफ द ईयर’ सम्मान से सम्मानित भी की गईं।

मी टू की शुरुआत हालांकि 12 साल पहले हुई थी, लेकिन इसने सुर्खियां बटोरीं 2017 में, जब 80 से अधिक महिलाओं ने हॉलीवुड प्रोड्यूसर हार्वे वाइंस्टीन पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया। नतीजा यह हुआ कि 25 मई, 2018 को वाइंस्टीन गिरफ्तार कर लिए गए।

..और अब भारत में मी टू! इसकी शुरुआत करने का श्रेय अभिनेत्री तनुश्री दत्ता को जाता है, जिन्होंने 10 साल पुरानी एक घटना के लिए नाना पाटेकर पर यौन प्रताड़ना के आरोप लगाकर उन्हें कटघड़े में खड़ा कर दिया। इसके बाद तो ‘मी टू’ के तहत रोज नए नाम सामने आने लगे। पूर्व पत्रकार और वर्तमान केंद्रीय मंत्री एम.जे. अकबर, अभिनेता आलोक नाथ, रजत कपूर, गायक कैलाश खेर, फिल्म निर्माता विकास बहल, लेखक चेतन भगत, गुरसिमरन खंभा.. फेहरिस्त काफी लंबी है।

मी टू सभ्य समाज की उस पोल को खोल रहा है, जहां एक सफल महिला, एक सफल और ताकतवर पुरुष पर आरोप लगाकर अपनी सफलता या असफलता का श्रेय मी टू को दे रही है। यानी अगर वो आज सफल है तो इस ‘सफलता’ के लिए उसे ‘बहुत समझौते’ करने पड़े। और अगर वो आज असफल है तो इसलिए, क्योंकि उसने अपने संघर्ष के दिनों में किसी प्रकार के समझौते करने से मना कर दिया था।

यह बात सही है कि हमारा समाज पुरुष प्रधान है और एक महिला को अपने लिए किसी भी क्षेत्र में अपनी पहचान बनाने के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ता है। लेकिन यह संघर्ष इसलिए नहीं होता कि ईश्वर ने उसे पुरुष के मुकाबले शारीरिक रूप से कमजोर बनाकर उसके साथ नाइंसाफी की है, बल्कि इसलिए होता है कि पुरुष, स्त्री के बारे में उसके शरीर से ऊपर उठकर कभी सोच ही नहीं पाता। लेकिन इसका पूरा दोष पुरुषों पर ही मढ़ दिया जाए तो यह पुरुष जाति के साथ भी नाइंसाफी ही होगी, क्योंकि काफी हद तक महिला जाति स्वयं इसकी जिम्मेदार है।

इसलिए नहीं कि हर महिला ऐसा सोचती है कि वह केवल अपनी प्रतिभा और मेहनत के बल पर सफल नहीं हो सकती, बल्कि इसलिए कि जो महिलाएं बिना प्रतिभा के सफलता की सीढ़ियां आसानी से चढ़ जाती हैं वे इन्हें हताश कर देती हैं। इसलिए नहीं कि एक भौतिक देह जीत जाती है, बल्कि इसलिए कि एक बौद्धिक क्षमता हार जाती है। इसलिए नहीं कि शारीरिक आकर्षण जीत जाता है, बल्कि इसलिए कि हुनर और कौशल हार जाते हैं। इसलिए नहीं कि योग्यता दिखाई नहीं देती, बल्कि इसलिए कि देह से दृष्टि हट नहीं पाती।

आज जब मी टू के जरिए कई महिलाएं आगे आकर समाज का चेहरा बेनकाब कर रही हैं, तो काफी हद तक कटघड़े में वे खुद भी हैं, क्योंकि सबसे पहली बात तो यह है कि आज इतने सालों बाद सोशल मीडिया पर जो ‘सच’ कहा जा रहा है, उससे किसे क्या हासिल होगा। अगर न्याय की बात करें तो सोशल मीडिया का बयान कोई सुबूत नहीं होता जो इन्हें न्याय दिला पाए या फिर आरोपी को कानूनी सजा।

हां, आरोपी को मीडिया ट्रायल और उससे उपजी मानसिक और सामाजिक प्रतिष्ठा की हानि की पीड़ा जरूर दी जा सकती है, लेकिन क्या ये महिलाएं जो सालों पहले अपने साथ हुए यौन अपराध और बलात्कार पर तब चुप रहीं, इनका यह आचरण उचित है? नहीं। ये तब भी गलत थीं और आज भी गलत हैं, क्योंकि कल जब उनके साथ किसी ने गलत आचरण किया था, उस वक्त उनके पास दो रास्ते थे। एक, उसके खिलाफ आवाज उठाने का और दूसरा चुप रहने का। तब वो चुप रहीं।

आज भी उनके पास दो रास्ते हैं- चुप रहने का या फिर मी टू की आवाज में आवाज मिलाने का और उन्होंने अपनी आवाज उठाई। हालांकि वे आज भी गलत हैं, क्योंकि सालों तक एक मुद्दे पर चुप रहने के बजाय अगर सही समय पर आवाज उठा लेतीं तो यह सिर्फ उनकी अपने लिए लड़ाई नहीं होती, बल्कि हजारों लड़कियों के उस स्वाभिमान की रक्षा के लिए लड़ाई होती जो उन पुरुषों को दोबारा किसी और लड़की या महिला के साथ दुराचार करने से रोक देता, लेकिन इनकी चुप्पी ने उन पुरुषों का हौसला बढ़ा दिया।

उस समय उनकी आवाज इस समाज में एक मधुर बदलाव ला सकती थी, लेकिन आज जब वे आवाज उठा रही हैं तो केवल शोर बनकर सामने आ रही हैं। वे कल भी स्वार्थी थीं और आज भी स्वार्थी हैं। कल वे अपने भविष्य को संवारने के लिए चुप थीं, आज शायद अपना वर्तमान संवारने के लिए बोल रही हैं।

यहां यह समझना जरूरी है कि यह नहीं कहा जा रहा, ये महिलाएं गलत बोल रही हैं, बल्कि यह कहा जा रहा है कि गलत समय पर पर बोल रही हैं। अगर सही समय पर ये आवाजें उठ गई होतीं तो शायद हमारे समाज का चेहरा आज इतना बदसूरत नहीं दिखाई देता। केवल पुरुषों को दोष देने से काम नहीं चलेगा। गीता में भी कहा गया है कि अन्याय सहना सबसे बड़ा अपराध है। (आईएएनएस/आईपीएन)

 

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पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा में बड़ा आतंकी हमला, 38 लोगों की मौत

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पख्तूनख्वा। पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा में बड़ा आतंकी हमला हुआ है। इस हमले में 38 लोगों की मौत हो गई है। यह हमला खैबर पख्तूनख्वा के डाउन कुर्रम इलाके में एक पैसेंजर वैन पर हुआ है। हमले में एक पुलिस अधिकारी और महिलाओं समेत दर्जनों लोग घायल भी हुए हैं। जानकारी के मुताबिक उत्तर-पश्चिमी पाकिस्तान के अशांत प्रांत खैबर पख्तूनख्वा में आतंकियों ने शिया मुस्लिम नागरिकों को ले जा रहे यात्री वाहनों पर गोलीबारी की है। यह क्षेत्र में हाल के वर्षों में इस तरह का सबसे घातक हमला है। मृतकों की संख्या में इजाफा हो सकता है।

AFP की रिपोर्ट के मुताबिक इस हमले में 38 लोगों की मौत हुई है. पैसेंजर वैन जैसे ही लोअर कुर्रम के ओचुट काली और मंदुरी के पास से गुजरी, वहां पहले से घात लगाकर बैठे आतंकियों ने वैन पर अंधाधुंध गोलियां बरसानी शुरू कर दीं. पैसेंजर वैन पाराचिनार से पेशावर जा रही थी। पाकिस्तान की समाचार एजेंसी डॉन के मुताबिक तहसील मुख्यालय अस्पताल अलीजई के अधिकारी डॉ. ग़यूर हुसैन ने हमले की पुष्टि की है.

शिया और सुन्नी मुसलमानों के बीच तनाव 

अफगानिस्तान की सीमा से लगे कबायली इलाके में भूमि विवाद को लेकर शिया और सुन्नी मुसलमानों के बीच दशकों से तनाव बना हुआ है। किसी भी समूह ने घटना की जिम्मेदारी नहीं ली है। जानकारी के मुताबिक “यात्री वाहनों के दो काफिले थे, एक पेशावर से पाराचिनार और दूसरा पाराचिनार से पेशावर यात्रियों को ले जा रहा था, तभी हथियारबंद लोगों ने उन पर गोलीबारी की।” चौधरी ने बताया कि उनके रिश्तेदार काफिले में पेशावर से यात्रा कर रहे थे।

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