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जल्लीकट्टू पर क्यों हैं भावनाएं उफान पर?
तमिलनाडु में जल्लीकट्टू की परंपरा हजारों सालों से है। लेकिन इस पर हालिया प्रतिबंध से जनभावनाएं उफान पर हैं और विरोध-प्रदर्शनों का दौर थमने का नाम नहीं ले रहा।
जल्लीकट्टू में परंपरागत रूप से यह होता रहा है कि एक सांड को कुछ समय के लिए पिंजड़े में बंद कर दिया जाता है और फिर अचानक उसे लोगों के बीच छोड़ दिया जाता है, कुछ उसी तरह जैसा कि स्पेन में होता है। सांड उन्मत्त हो जाता है और अपनी क्षमता के हिसाब से सबसे तेज रफ्तार से भीड़ की ओर भागता है, जिसे देखते ही भीड़ अफरा-तफरी में पीछे हटती है।
ठीक इसी समय भीड़ से कुछ उत्साही व साहसी युवक सांड के सींगों से ठीक पीछे गर्दन के बाद के उभरे हुए हिस्से को पकडऩे की कोशिश करते हैं और कुछ देर के लिए इसे थामे रखते हैं। एक बार में केवल एक व्यक्ति को सींगों के उस कूबड़ को थामने की अनुमति होती है। यदि ऐसा करते हुए वह एक निर्धारित दूरी तक चला जाता है तो उसे पुरस्कृत किया जाता है। यदि वह ऐसा नहीं कर पाता है तो सांड जीत जाता है और उसकी ताकत व चुस्ती-फुर्ती को सराहा जाता है। इसके साथ ही वह सांड गांव में गायों के प्रजनन के लिए सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। गायों में प्रजनन का यह सीजन साल के अंत में शुरू हो सकता है।
ग्रामीण और दर्शक सांडों के प्रदर्शन की तुलना कर यह तय करते हैं कि उनकी गायों के लिए कौन सा सांड बेहतर होगा। इसमें हिस्सा लेने वाले युवा लडक़े जल्लीकट्टू (सिक्कों का पैकेट) पुरस्कार लेने के लिए बैल के कूबड़ को थामने के बेहतरीन तरीकों का पता लगाते हैं।
यह उल्लेखनीय है कि सांडों की सुरक्षा को लेकर मालिकों को काफी कुछ दांव पर लगाना होता है और इसका ध्यान रखना होता है कि उसके साथ दुर्व्यवहार न हो। पूंछ खींचना या उसे किसी भी रूप में अनावश्यक भडक़ाने की अनुमति नहीं होती। तमिल नागरिकों को जानने वालों को पता है कि यहां के लोग नियमों को लेकर बेहद पाबंद हैं। जहां तक कला, संस्कृति, अनुशासन या आर्थिक विकास की बात है, तमिलनाडु भारत के सर्वश्रेष्ठ राज्यों में से है। निस्संदेह इस दौरान कुछ गंभीर रूप से जख्मी होते हैं, यहां तक कि मौतें भी होती हैं और कभी-कभी पशुओं से दुर्व्यवहार भी होता है, लेकिन वर्षो से ये बस अपवाद हैं और निश्चित तौर पर नियम नहीं हैं।
भारत में परंपरागत त्योहारों पर एक नजर डालें तो हर साल दिवाली पर पटाखों की वजह से कुछ लोग अंधे हो जाते हैं तो कुछ मौतें भी होती हैं। कभी-कभी पटाखे किसी के चेहरे पर ही फट जाते हैं। पटाखों को बनाने का काम छोटे स्थानों पर होता है, जिनमें बाल श्रम का भी इस्तेमाल होता है और सुरक्षा शर्तो की भी अवहेलना की जाती है।
होली का त्योहार खुशनुमा होता है, लेकिन यह कभी-कभी उत्तर भारत में अकेली बाहर निकलने वाली या बसों में यात्रा करने वाली महिलाओं के लिए खतरनाक साबित हो सकता है। यह एक ऐसा त्योहार है, जिसमें चेहरे व कपड़ों पर रंग डालना स्वाभाविक होता है। लेकिन कभी-कभी इसकी आड़ में कुछ पुरुष गलत इरादों से भी ऐसा कर जाते हैं।
लेकिन क्या इसका अर्थ यह है हम इन उत्सवों पर प्रतिबंध लगा दें? बॉक्सिंग या उन अन्य खेलों का क्या, जिनमें लोग जख्मी होते हैं?
जल्लीकट्टू का उद्देश्य सांडों या इंसानों को नुकसान पहुंचाना नहीं होता। यहां मामला स्पेन से बिल्कुल अलग है, जहां सांडों को उकसाया जाता है और तिल-तिल कर मरने पर मजबूर कर दिया जाता है।
ग्रामीण भारत के अधिकांश हिस्सों में गाय जब बछिया को जन्म देती है तो खुशी मनाई जाती है। बछड़ों को बोझ समझा जाता है, क्योंकि वे न तो दूध देते हैं और न ही भविष्य में संतोनोत्पत्ति करते हैं। वे काफी समय तक गर्भ में पलते हैं और फिर खेत जोतने लायक होने से पहले तक उन्हें बिना किसी लाभ के अच्छा खानपान दिया जाता है।
जल्लीकट्टू की परंपरा लोगों को बछड़ों का भी ध्यान रखने को प्रेरित करती है। इसका संबंध आय के साथ-साथ सम्मान से भी होता है। वास्तव में यह जन्म के कुछ ही दिनों बाद बछड़ों को बूचडख़ाने में भेजने की क्रूरता से रोकता है।
ऐसा लगता है कि तमिलनाडु के लोग भी इसी तरह महसूस करते हैं। वे बड़ी संख्या में इसके समर्थन में सडक़ों पर उतर आए हैं। जाति, धर्म, लिंग, उम्र, राजनीतिक पार्टी लाइन से ऊपर उठते हुए सभी जल्लीकट्टू से प्रतिबंध हटाने की मांग कर रहे हैं। प्रतिबंध को लेकर अपनी नाखुशी जाहिर करने के लिए उन्होंने वास्तव में बैंकों, कार्यालयों, सरकारी नौकरियों से छुट्टी ले रखी है।
ऐसे में जबकि इतनी बड़ी तादाद में लोगों को जल्लीकट्टू पर प्रतिबंध को लेकर आपत्ति है, इससे संबंधित सभी निर्णयों की समीक्षा की जानी चाहिए। हम एक गतिशील दुनिया में जी रहे हैं, ‘जहां पुरानी व्यवस्था इसलिए बदलती है, ताकि नई व्यवस्था अमल में आ सके।’
निश्चित तौर पर क्रूरता बंद होनी चाहिए। सुरक्षा को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। उन लोगों पर प्रतिबंध लगाइये, जो जल्लीकट्टू की भावना का अनुसरण नहीं करते और पशु तथा अपनी जान खतरे में डाल देते हैं। उन कुछ गांवों में जल्लीकट्टू पर प्रतिबंध लगाइये, जहां लोग इससे संबंधित नियमों का पालन नहीं करते।
इस पर पूरी तरह प्रतिबंध कुछ वैसा ही होगा, जैसे कि कुछ दुर्घटनाओं के लिए हम सभी मोटर कारों को प्रतिबंधित कर दें।
(ये लेखक के निजी विचार हैं।)
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पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा में बड़ा आतंकी हमला, 38 लोगों की मौत
पख्तूनख्वा। पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा में बड़ा आतंकी हमला हुआ है। इस हमले में 38 लोगों की मौत हो गई है। यह हमला खैबर पख्तूनख्वा के डाउन कुर्रम इलाके में एक पैसेंजर वैन पर हुआ है। हमले में एक पुलिस अधिकारी और महिलाओं समेत दर्जनों लोग घायल भी हुए हैं। जानकारी के मुताबिक उत्तर-पश्चिमी पाकिस्तान के अशांत प्रांत खैबर पख्तूनख्वा में आतंकियों ने शिया मुस्लिम नागरिकों को ले जा रहे यात्री वाहनों पर गोलीबारी की है। यह क्षेत्र में हाल के वर्षों में इस तरह का सबसे घातक हमला है। मृतकों की संख्या में इजाफा हो सकता है।
AFP की रिपोर्ट के मुताबिक इस हमले में 38 लोगों की मौत हुई है. पैसेंजर वैन जैसे ही लोअर कुर्रम के ओचुट काली और मंदुरी के पास से गुजरी, वहां पहले से घात लगाकर बैठे आतंकियों ने वैन पर अंधाधुंध गोलियां बरसानी शुरू कर दीं. पैसेंजर वैन पाराचिनार से पेशावर जा रही थी। पाकिस्तान की समाचार एजेंसी डॉन के मुताबिक तहसील मुख्यालय अस्पताल अलीजई के अधिकारी डॉ. ग़यूर हुसैन ने हमले की पुष्टि की है.
शिया और सुन्नी मुसलमानों के बीच तनाव
अफगानिस्तान की सीमा से लगे कबायली इलाके में भूमि विवाद को लेकर शिया और सुन्नी मुसलमानों के बीच दशकों से तनाव बना हुआ है। किसी भी समूह ने घटना की जिम्मेदारी नहीं ली है। जानकारी के मुताबिक “यात्री वाहनों के दो काफिले थे, एक पेशावर से पाराचिनार और दूसरा पाराचिनार से पेशावर यात्रियों को ले जा रहा था, तभी हथियारबंद लोगों ने उन पर गोलीबारी की।” चौधरी ने बताया कि उनके रिश्तेदार काफिले में पेशावर से यात्रा कर रहे थे।
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