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सोनिया कर पाएंगी गैर भाजपाई धड़ों को एकजुट?
नई दिल्ली, 24 मार्च (आईएएनएस)| तीसरे मोर्चे के गठन के लिए कोलकाता में के.चंद्रशेखर राव की ममता बनर्जी के साथ मुलाकात इस बात का संकेत है कि राष्ट्रीय स्तर पर विपक्ष के लिए एकजुट होना कितना मुश्किल होने जा रहा है।
विपक्षी गठबंधन के धरातल पर आने से पहले इसके ढांचे को लेकर मतभेद सबके सामने है। तेलंगाना के मुख्यमंत्री राव एक गैर भाजपाई और गैर कांग्रेसी दलों का गठजोड़ चाहते हैं, जबकि ममता बनर्जी ने कांग्रेस सहित अपने अन्य दलों से तालमेल के विकल्पों को खुला रखा है।
इस गठजोड़ की एक विशेषता यह है कि इनमें से प्रत्येक संघटक अपने-अपने राज्यों तक ही सिमटे हुए हैं। उदाहरण के लिए कांग्रेस तेलंगाना में चंद्रशेखर राव के लिए उपयुक्त नहीं हो सकती, लेकिन ममता बनर्जी के मामले में ऐसा नहीं है जबकि तेलंगाना के मुख्यमंत्री कांग्रेस से दूरी बनाए रखना चाहते हैं। वहीं ममता बनर्जी इसमें सहज हैं।
मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) जैसी पार्टी के भीतर भी इस तरह की धारणाएं हैं। केरल की वाम सरकार कांग्रेस से नजदीकी बढ़ाने के पक्ष में नहीं है, जबकि पश्चिम बंगाल का वामदल भाजपा के विरुद्ध कांग्रेस के साथ गठबंधन के लिए तैयार है।
राहुल गांधी को भाजपा विरोधी गठबंधन बनने को लेकर काफी उम्मीदें हैं।
भाजपा की मौजूदा चुनौतियां अपने राजनैतिक शत्रुओं को लेकर है। हालांकि, गैर भाजपाई पार्टियां जानती हैं कि उनमें से कोई भी केंद्र सरकार को अपने दम पर चुनौती देने में सक्षम नहीं है। नेताओं का व्यक्तिगत अंहकार भी एक समस्या है, इनमें से कोई भी नेता दूसरे नेता के नेतृत्व को स्वीकारने में सहज नहीं है।
ये सारी चुनौतियां अतीत में हुए गठबंधनों के साथ भी रही है। जनता पार्टी (1977-1980) के दौरान मोरारजी देसाई, चरण सिंह और जगजीवन राम के बीच में द्वंद्वयुद्ध था। जनता दल (1989-1991) के दौरान वी.पी.सिंह, देवी लाल और चंद्रशेखर के बीच भी ऐसी ही स्थिति थी।
इसी तरह की स्थिति का सामना 1996 के बाद भी देखा गया, जब एच.डी. देवगौड़ा, मुलायम सिंह यादव और अन्य ने पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री ज्योति बसु के नाम को आगे बढ़ाया, लेकिन माकपा ने इसे खारिज कर दिया। दूसरी तरफ भाजपा वर्ष 1996 में अटल बिहारी वाजपेयी और अब नरेंद्र मोदी के मामले में भाग्यशाली साबित हुई कि इनके नामों को कहीं से भी चुनौती का सामना नहीं करना पड़ा।
मौजूदा समय में गैर भाजपाई धड़े में ऐसा कौन सा नेता है, जिसे चुनौती नहीं मिलेगी? हालांकि, संघीय मोर्चे में नेता अपने प्रांतों में अधिक प्रभावशाली रहते हैं, मगर इनमें से कोई भी सौम्य, प्रगतिशील, शिक्षित, सम्मानित, विश्वासपात्र और निष्पक्ष नेता के रूप में प्रधानमंत्री की छवि की बराबरी कर सकता है?
यदि शरद पवार से शुरू करें तो भाजपा के विरुद्ध विपक्षी गठबंधन का नेतृत्व करने की मंशा रखने वालों में से एक वह भी हैं, लेकिन उनकी विश्वसनीयता को लेकर सवाल खड़ा है, भाजपा ने उनकी पार्टी को महाराष्ट्र में शिवसेना के दांवपेचों को आश्रय देने वाला करार दिया है। उन्हें आमतौर पर चतुर और सिर्फ अपना फायदा देखने वाले शख्स के तौर पर देखा जाता है।
पवार की उम्र 78 वर्ष है, जो विपक्षी गठबंधन का नेतृत्व करने में एक चुनौती बनी हुई है। यशवंत सिन्हा ने एक बार कहा था कि एक नेता का दिमाग 75 साल के बाद काम करना बंद कर देता है।
इस मामले में राहुल गांधी सुरक्षित हैं, क्योंकि उनकी उम्र 48 वर्ष है, वहीं ममता बनर्जी 63 वर्ष की हैं। दिल्ली में उनके सहयोगी (केजरीवाल) उनके प्रति पूर्ण समर्थन भी दिखाते हैं। वहीं, कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को अभी भी परिपक्व नहीं समझा जाता। उधर, ममता बनर्जी की छवि अपने ही राज्य तक सिमटी हुई है।
यदि अखिलेश यादव (45) और मायावती (62) की बात करें तो उन्हें हिंदी भाषी क्षेत्र तक ही सिमटे रहने की हानि उठानी पड़ रही है। नीतीश कुमार (67) को एक बार जरूर संभावित प्रधानमंत्री लायक उम्मीदवार समझा गया, लेकिन उन्होंने अधिक पाने की चाह में अपने पैर पर खुद कुल्हाड़ी मार ली।
सोनिया गांधी (72) की बात करें तो वह फिलहाल डिनर डिप्लोमेसी में ही व्यस्त हैं और इसी डिप्लोमेसी के जरिए भाजपा विरोधी गठबंधन के जुगाड़ में लगी हुई हैं। वह एक संभावित उम्मीदवार जरूर हैं, लेकिन उनकी भी कुछ कमियां हैं।
पहला, उनका स्वास्थ्य इसके आड़े आ रहा है। प्रधानमंत्री बनने के उनके सवाल पर हिंदूवादी तत्व उनके विदेशी होने का मुद्दा उछाल देते हैं। साल 2004 में जब ऐसी स्थिति बनी थी तो सुषमा स्वराज ने बाल मुंडवाने तक की धमकी दे डाली थी। तीसरा कारण है कि वह शायद खुद इसके लिए तैयार नहीं हों, क्योंकि वह अपने बेटे (राहुल) को राजनीति में आगे बढ़ाने का मार्ग प्रशस्त कर रही हैं।
हालांकि, सत्य तो यही है कि सोनिया गांधी ही एकमात्र ऐसी शख्सियत हैं, जिनकी गैर भाजपाई धड़े में अन्य किसी उम्मीदवार की तुलना में बड़े पैमाने पर स्वीकार्यता है। वह दलितों, पिछड़ी जातियों, अल्पसंख्यकों और ऊपरी जाति में पारंपरिक कांग्रेसी समर्थकों के साथ मध्यमवर्ग हर जगह पहुंच और स्वीकार्यता है। एक तरह से वह हाल के कुछ बुरे वर्षो के सूखे में विपक्ष के लिए ‘ओस की बूंद’ की तरह हो सकती हैं।
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लोक गायिका शारदा सिन्हा के निधन पर, पीएम मोदी, नितीश कुमार समेत बड़े नेताओं ने जताया शोक
नई दिल्ली। मशहूर लोक गायिका शारदा सिन्हा का निधन हो गया है। दिल्ली के एम्स में आज उन्होंने अंतिम सांस ली। वह लंबे समय से बीमार चल रहीं थी। एम्स में उन्हें भर्ती करवाया गया था। शारदा सिन्हा को बिहार की स्वर कोकिला कहा जाता था।
पीएम मोदी ने अपने एक्स अकाउंट पर जताया शोक
पीएम मोदी ने कहा कि शारदा के गाए मैथिली और भोजपुरी के लोकगीत पिछले कई दशकों से बेहद लोकप्रिय रहे हैं। आस्था के महापर्व छठ से जुड़े उनके सुमधुर गीतों की गूंज भी सदैव बनी रहेगी। उनका जाना संगीत जगत के लिए एक अपूरणीय क्षति है। शोक की इस घड़ी में मेरी संवेदनाएं उनके परिजनों और प्रशंसकों के साथ हैं।
सुप्रसिद्ध लोक गायिका शारदा सिन्हा जी के निधन से अत्यंत दुख हुआ है। उनके गाए मैथिली और भोजपुरी के लोकगीत पिछले कई दशकों से बेहद लोकप्रिय रहे हैं। आस्था के महापर्व छठ से जुड़े उनके सुमधुर गीतों की गूंज भी सदैव बनी रहेगी। उनका जाना संगीत जगत के लिए एक अपूरणीय क्षति है। शोक की इस… pic.twitter.com/sOaLvUOnrW
— Narendra Modi (@narendramodi) November 5, 2024
बिहार के सीएम नितीश कुमार ने भी जताया शोक
केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने भी शारदा सिन्हा के निधन पर शोक जताया है। उन्होंने ट्वीट कर कहा कि अपनी मधुर आवाज़ से पांच दशकों से अधिक समय तक भारतीय संगीत को नई ऊंचाई देने वाली शारदा सिन्हा के निधन से अत्यंत दुःखी हूं। बिहार कोकिला के रूप में प्रसिद्ध शारदा सिन्हा जी ने मैथिली और भोजपुरी लोकगीतों को जन-जन का कंठहार बनाया और पार्श्व गायिका के रूप में फिल्म जगत को मंत्रमुग्ध करतीं रहीं। पूर्वांचल के लोक संस्कार उनकी आवाज़ के बिना अधूरे लगते हैं। इस छठ महापर्व पर उनका स्वर भक्तों को निश्चय ही और भी भावुक करेगा।
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