आध्यात्म
तत्वज्ञान सदा काम में लाना चाहिये
अर्थात् साधक अपने आपको तृण से भी निम्न समझे। वृक्ष से भी अधिक सहनशील बने। सबको मान दे किंतु स्वयं मान को विष माने। सच तो यह है कि जब तक साक्षात्कार या दिव्य प्रेम न मिल जाय, जब तक सभी नास्तिक या आस्तिक समान ही हैं क्योंकि अभी तो माया के ही दास हैं। फिर अहंकार क्यों?
उपर्युक्त तत्वज्ञान सदा काम में लाना चाहिये। प्रायः साधक कुछ निर्धारित साधना काल में ही तत्वज्ञान साथ रखते हैं। यह समीचीन नहीं है। क्षण-क्षण अपने मन की जाँच करते रहना है। नामापराध से प्रमुख रूप से बचना है। यदि मन को सदा अपने शरण्य में ही लगाने का अभ्यास किया जाय, तभी गड़बड़ी से बचा जा सकता है। अन्यथा मन पुराने स्थान पर पहुँच जायगा।
साधना-भक्ति के पश् चात् भाव-भक्ति का स्वयं उदय होता है। इन दोनों की यह पहिचान है कि साधना-भक्ति में मन को संसार से हटाकर भगवान् में लगाने का अभ्यास करना होता है जबकि भावभक्ति में स्वयं मन भगवान् में लगने लगता है। संसार के दर्शनादि से वितृष्णा हो जाती है। अर्थात् पहले मन लगाना पश् चात् मन लगाना। जैसे संसार में कोई भी व्यक्ति जन्मजात शराबी नहीं होता।
पहले बेमनी से बार-बार पीता है। फिर धीरे-धीरे शराब उसे दास बना लेती है। वह शराबी समस्त लोक एवं परलोक पर लात मार देता है। जब जड़ शराब के नशे का यह प्रत्यक्ष हाल है तो हम भी जब भक्ति करते-करते दिव्य मस्ती का अनुभव करने लगेंगे तब हम भी भुक्ति मुक्ति बैकुण्ठ को लात मार देंगे। एवं युगल सुख के हेतु युगल सेवा की ही कामना करेंगे।
रूपध्यान करते समय मन अपने पूर्व प्रिय पात्रों के पास जायगा। उस समय आप अशांत न हों। मन जहाँ भी जाय जाने दीजिये। बस उसी जगह उसी वस्तु में अपने शरण्य को खड़ा कर दीजिये। जैसे स्त्री की आँख के सौंदर्य में मन गया तो उसी आँख में श्यामसुन्दर को खड़ा कर दो। बस कुछ दिन में मन थक जायगा। सर्वत्र सर्वदा अपने श्याम के ही ध्यान का अभ्यास करना है। गीता कहती है-
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।
(गीता 6-35)
राधे राधे राधे राधे राधे राधे
सब साधन जनु देह सम, रूपध्यान जनु प्रान।
खात गीध अरु स्वान जनु, कामादिक शव मान।। 10।।
भावार्थ- श्रीकृष्ण की प्राइज़ की समस्त साधनायें (यम, नियम, कर्म योग, ज्ञान व्रतादि) प्राणहीन शव के समान हैं। यदि रूपध्यान रहित हैं।
व्याख्या- उप- उपसर्ग आस् धातु से ल्युच् प्रत्यय होकर उपासना शब्द बनता है। जिसका अर्थ ही है ‘मन का श्रीकृष्ण के पास रहना।‘ इसी प्रकार भक्ति शब्द भी ‘भज् सेवायाम् धातु से बनता है।‘ जिसका अर्थ है मन से अपने सेव्य की सेवा करना। गरुड़ पुराण कहता है-
भज इत्येषवैधातुः सेवायां परिकीर्तितः।
तस्मात्सेवा बुधैः प्रोजेक्ट भक्तिः साधनभूयसी।।
(गरुड़ पुराण)
चैतन्य महाप्रभु ने भक्ति के 2 प्रकार बतायें हैं। यथा-
- अनासंग भक्ति। 2. सासंग भक्ति
- अनासंगभक्ति- जो भक्ति मन के रूपध्यान से रहित होती है। केवल इन्द्रियों से ही की जाती है।
2 सासंगभक्ति- जो भक्ति शरण्य के रूपध्यान से युक्त होती है। यही भक्ति वास्तविक भक्ति है। रसिकों ने कहा कि-
2’मनेर स्मरण प्राण,
2श्रीकृष्ण का स्मरण साधना भक्ति में प्राण के समान है। प्राणहीन को तो कोई गीधे कुत्ते खा जाते हैं। कुछ लोग कहते हैं कि जब भगवान् के नामादि में भगवान् की सब शक्तियाँ रहती ही हैं, तो लाभ तो पूरा ही मिलेगा। क्योंकि
म्रियमाणो हरेर्नाम गृणन् पुत्रोपचारितम् ।
अजामिलोऽप्यगाद्धाम किं पुनः श्रद्धया गृणन् ।।
(भाग. 6-2-49)
अर्थात् अजामिल ने मृत्यु के समय अपने बेटे का ध्यान करते हुये बेटे का ही नाम ‘नारायण’ लिया। और वह गोलोक गया। अतः रूपध्यान परमावश्यक नहीं है।
ऐसा कहने वालों ने भागवत का ठीक ठीक अध्ययन मनन नहीं किया। प्रथम तो यह विचार कीजिये कि अजामिल ने जब अपने पुत्र के नाम के लक्ष्य से नारायण कहा था, तब उसका मृत्यु का समय ही नहीं था। यदि मृत्यु का समय होता तो विष्णुदूत हरिधाम ले जाते। अजामिल तो उन दूतों के चले जाने के बाद हरिद्वार गया था वहाँ उसने अनन्य निष्ठा से श्रीकृष्ण भक्ति की थी। जब भक्ति परिपूर्ण हो गई, तब मृत्यु समय आने पर बैकुंठ गया।
थोड़ा तर्क से भी समझ लीजिये। मृत्यु काल के कष्ट के समान कोई कष्ट नहीं होता। उस असह्य कष्ट को मायिक मन बुद्धि सहन ही नहीं कर सकते। यों समझिये- मान लीजिये देवदत्त ने यज्ञदत्त को लाठियों से मारना प्रारम्भ किया। प्रत्येक लाठी के प्रहार से वह चिल्लाता रहा किंतु दसवीं लाठी के प्रहार पर चुप हो गया। देवदत्त ने समझा कि यज्ञदत्त मर गया। अतः वह चला गया। किंतु 1 घंटे में ही यज्ञदत्त होश में आ गया। और पुनः कराहने लगा। इसका अभिप्राय यह है कि मृत्यु से कम कष्ट की दशा मूर्च्छा है। जब मूर्च्छा में ही मन बुद्धि का कार्य नहीं होता तो मृत्यु के कष्ट में कोई कैसे कुछ भी बोल सकेगा। तभी तो बालि ने कहा था यथा-
कोटि कोटि मुनि यतन कराहीं, अंत राम कहि आवत नाहीं।
गीता में बड़ा सुंदर निरूपण किया है। यथा-
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् ।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् ।।
(गीता 8-13)
अर्थात् मेरा (मां) स्मरण करते हुये यदि मेरा लेकर कोई शरीर छोड़ता है, तभी मेरे लोक को आता है। पुनः गीता ही कहती है। यथा-
अंतकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् ।
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः।
इन दोनों श्लोकों में दो बातें विचारणीय हैं। एक यह कि ‘मामनुस्मरन् , ‘मामेव स्मरन् , केवल मेरा ही स्मरण करे फिर मेरा नाम ले या न ले। दूसरी यह कि जो शरीर को स्वेच्छा से छोड़ता है। स्वेच्छा से शरीर छोड़ने की बात मायिक जीव कैसे करेगा। जब बड़े-बड़े योगीन्द्र मुनीन्द्र भी कोटि कोटि उपाय करके भी हरि स्मरण (मृत्यु-काल में) नहीं कर पाते, तो साधारण जीव की बात ही क्या है।
आध्यात्म
महापर्व छठ पूजा का आज तीसरा दिन, सीएम योगी ने दी बधाई
लखनऊ ।लोक आस्था का महापर्व छठ पूजा का आज तीसरा दिन है. आज के दिन डूबते सूर्य को सायंकालीन अर्घ्य दिया जाएगा और इसकी तैयारियां जोरों पर हैं. आज नदी किनारे बने हुए छठ घाट पर शाम के समय व्रती महिलाएं पूरी निष्ठा भाव से भगवान भास्कर की उपासना करती हैं. व्रती पानी में खड़े होकर ठेकुआ, गन्ना समेत अन्य प्रसाद सामग्री से सूर्यदेव को अर्घ्य देती हैं और अपने परिवार, संतान की सुख समृद्धि की प्रार्थना करती हैं।
यूपी के मुख्यमंत्री ने भी दी बधाई।
महापर्व 'छठ' पर हमरे ओर से आप सब माता-बहिन आ पूरा भोजपुरी समाज के लोगन के बहुत-बहुत मंगलकामना…
जय जय छठी मइया! pic.twitter.com/KR2lpcamdO
— Yogi Adityanath (@myogiadityanath) November 7, 2024
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