उत्तराखंड
जनता की उम्मीदों पर खरी नहीं उतर सकी त्रिवेन्द्र सरकार
देहरादून। उत्तराखंड में 18 मार्च को त्रिवेन्द्र सिंह रावत के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद लगा कि हरीश रावत के जाने के बाद कुछ बदलेगा, लेकिन नया कुछ नहीं हुआ ? चेहरे बदले और जन समस्याओं के नाम पर ढाक के वही तीन पात ?
बीजेपी ने सत्ता में आने के बाद हरीश रावत सरकार के कार्यकाल में अच्छी जन नीतियों का संज्ञान लेने की बजाय उन नीतियों पर अमल करना ही बंद कर दिया, लेकिन जनता ने मोदी के नेतृत्व में त्रिवेन्द्र सरकार को 57 विधायक दिए ? अब भी जन मुद्दों के मामले में सरकार आज भी हरीश रावत सरकार से पीछे है, किसी सरकार का 8 माह का कार्यकाल काफी होता है ?
सरकार की गुड गवर्नेंस की परख उसकी राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक नीतियों पर निर्भर करती है। नीतियां ऐसी जो सौ फीसदी जनहित में हों और राज्य के हर कोने का व्यक्ति उससे लाभान्वित हो। वर्तमान सरकार इन सारे मोर्चों में अब तक कोई खास छाप नहीं छोड़ पाई है।
सरकार के इन सात महीनों में तीन हजार स्कूलों को बंद करना इन दावों की पोल खोल रहा है कि वह पलायन पर काम कर रही है। देहरादून, हरिद्वार, ऊधमसिंह नगर और नैनीताल की अपेक्षा पर्वतीय जनपदों में अवस्थापना सुविधाएं कम पहुंच सकी हैं। सामान्य अथवा गंभीर बीमारी के इलाज के लिए पर्वतीय क्षेत्र के लोगों को मैदानी जिलों की तरफ भागना ही है।
इसका ज्वलंत उदाहरण हाल ही में महिला का पुल पर प्रसव होना है। मूलभूत सुविधाओं का अभाव बढ़ते पलायन का एक बड़ा कारण है। मौजूदा सरकार ने पहली बार पलायन आयोग का गठन कर संकेत दिए हैं कि वह पर्वतीय क्षेत्रों का विकास करना चाहती है ताकि पलायन पर लगाम लग सके। लेकिन अन्य आयोगों की तरह इस आयोग की सिफारिशों को नजरअंदाज किया गया तो आयोग का गठन मात्र एक दिखावा होगा। मुख्यमंत्री अथवा मंत्रियों के जनता दरबार में सीमांत और सूदूरवर्ती क्षेत्र के लोग बिजली व पानी की समस्या को लेकर राजधानी देहरादून आ रहे हैं।
इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि छोटी प्रशासनिक इकाइयां गुड गवर्नेंस के लिए कितनी जिम्मेदारी से काम कर रही हैं और उनकी कार्य संस्कृति में कितना बदलाव आया है।
गुड गवर्नेंस की दिशा में यदि काम हो रहा होता तो सरकार बनने के छह महीने बाद ही नीतियों को लेकर लोग विरोध न करते। आए दिन धरना-प्रदर्शन सुधार की दिशा में काम करने का इशारा कर रहे हैं। न तो बिजली परियोजनाओं के निर्माण पर ध्यान दिया गया और न सिंचाई परियोजनाओं और परिसंपत्तियों के बारे में सोचा गया।
पर्यटन विकास का क्षेत्र भी लगभग अब तक अधूरा ही है। लोकायुक्त और पंचायत राज एक्ट राजनीतिक दलों की सियासत में हिचकोले खा रहे हैं। सशक्त लोकायुक्त से बड़ी कुर्सियों को खतरा है तो पंचायत राज एक्ट लागू होने से सत्ता में बने रहने के अधिकारों में कटौती का भय।
शायद वर्तमान सीएम को विश्वसनीयता का संकट पैदा हो गया है। तभी यहां भाजपा की उत्तराखंड सरकार की इमेज निखारने में जुटे दिल्ली में कार्यरत एक पत्रकार गंभीर विवादों में घिर गया है। सात महीने पुरानी उत्तराखंड भाजपा सरकार ने देहरादून से दिल्ली तक अपनी छवि सुधारने के लिए उसकी सेवाएं लीं और उसके एनजीओ को हर तरह के संसाधन मुहैया कराए गए। आयोजन का नाम रैबार रखा गया।
देहरादून में आम लोगों को इस कार्यक्रम से जानबूझकर एकदम दूर रखा गया। सोशल मीडिया में भी सवाल पूछे जा रहे हैं कि अगर चर्चा उत्तराखंड के हितों की है तो इसमें पत्रकारों पर पाबंदी का औचित्य क्या था।
अगर सब कुछ गोपनीय रखा जाना था तो फिर यह परिचर्चा सीएम हाउस के बजाय कहीं पहाड़ के जंगल में क्यों नहीं रखी गई। दिल्ली से उत्तराखंड की नामचीन हस्तियों को इमेज निर्माण का इवेंट मैंनेजमेंट का ठेका दिया गया। पर ये इमेज बिल्डिंग ऐसे इवेंटों से नहीं होने वाली है। सरकार की इमेज तभी बनेगी जब वह धरातल पर कार्य करें।
तीनों पक्षों में भाजपा की बंपर बहुमत वाली सरकार खास बात ये है कि ऐसे दो समय जहां केंद्र व सूबे में कांग्रेस की सरकार थी यूपी की परिसंपत्तियों के बंटवारे को लेकर कोई पहल नहीं हुई।
यहां पूरे समय कांग्रेस सूबे में अंतरकलह से ही जूझती रही। इस बीच लोकसभा चुनाव में सूबे की पांचों सीटें भी भाजपा की झोली में जा गिरी। राजनीतिक हालात फिर उत्तराखंड के खिलाफ हो गए। २017 में सूबे में चुनाव हुएतो भाजपा बंपर बहुमत से सत्ता में आ गई। त्रिवेंद्र सिंह रावत ने सत्ता संभाली।
इस बीच यूपी में भी भाजपा का वनवास खत्म हुआ और वहां भी उसे सत्ता मिली। उत्तराखंड मूल के योगी आदित्यनाथ को यूपी का मुख्यमंत्री बनाया गया। ऐसा पहली बार हुआ कि जब परिसंपत्ति के मसले के तीनों पक्षों में भाजपा की बंपर बहुमत वाली सरकार काबिज है। ऐसे में उम्मीद की जानी चाहिए कि अगले वर्ष जब हम 18वीं वर्षगांठ मना रहे हों तो बड़ा भाई यूपी और केंद्र हमें बदले में परिसंपत्तियों का
गिफ्ट देगा।
इसलिए फैल रहा रैबार’ कार्यक्रम
रैबार कार्यक्रम में उत्तराखंड मूल के सेना प्रमुख बिपिन रावत,प्रधानमंत्री के सचिव भास्कर खुल्बे, रेलवे बोर्ड के चेयरमैन अश्विनी लोहानी, कोस्टगार्ड के डायरेक्टर जनरल राजेन्द्र सिंह, समेत कई विशिष्ट लोग शामिल हुए,सीएम त्रिवेंद्र की छोटी सी गलती से मीडिया को प्रोग्राम से दूर रखा गया।
नतीजतन मीडियाकर्मियों की नाराजगी झेलनी पड़ी। सिर्फ सपनों का उत्तराखंड बनाने के लिए बहुत कुछ किया जाना बाकी है। जबकि प्रदेश में मौजूद पर्यटन का अकूत खजाना, वन और जल संपदा का भंडार हमारे लिए वरदान है। बार–बार नया उत्तराखंड बनाने के संकल्प की बात होती है। जबकि उत्तराखंड में प्रतिभाओं की कमी नहीं है। आज देश में महत्वपूर्ण पदों पर उत्तराखंड के लोग विराजमान हैं।
उत्तराखंड
शीतकाल की शुरू होते ही केदारनाथ धाम के कपाट बंद
उत्तराखंड। केदारनाथ धाम में भाई दूज के अवसर पर श्रद्धालुओं के लिए शीतकाल का आगमन हो चुका है। बाबा केदार के कपाट रविवार सुबह 8.30 बजे विधि-विधान के साथ बंद कर दिए गए। इसके साथ ही इस साल चार धाम यात्रा ठहर जाएगी। ठंड के इस मौसम में श्रद्धालु अब अगले वर्ष की प्रतीक्षा करेंगे, जब कपाट फिर से खोलेंगे। मंदिर के पट बंद होने के बाद बाबा की डोली शीतकालीन गद्दीस्थल की ओर रवाना हो गई है।इसके तहत बाबा केदार के ज्योतिर्लिंग को समाधिरूप देकर शीतकाल के लिए कपाट बंद किए गए। कपाट बंद होते ही बाबा केदार की चल उत्सव विग्रह डोली ने अपने शीतकालीन गद्दीस्थल, ओंकारेश्वर मंदिर, उखीमठ के लिए प्रस्थान किया।
बता दें कि हर साल शीतकाल की शुरू होते ही केदारनाथ धाम के कपाट बंद कर दिया जाते हैं. इसके बाद बाबा केदारनाथ की डोली शीतकालीन गद्दीस्थल ओंकारेश्वर मंदिर ऊखीमठ के लिए रवाना होती है. अगले 6 महीने तक बाबा केदार की पूजा-अर्चना शीतकालीन गद्दीस्थल ओंकारेश्वर मंदिर ऊखीमठ में ही होती है.
उत्तरकाशी ज़िले में स्थिति उत्तराखंड के चार धामों में से एक गंगोत्री में मां गंगा की पूजा होती है। यहीं से आगे गोमुख है, जहां से गंगा का उदगम है। सबसे पहले गंगोत्री के कपाट बंद हुए हैं। अब आज केदारनाथ के साथ-साथ यमुनोत्री के कपाट बंद होंगे। उसके बाद आखिर में बदरीनाथ धाम के कपाट बंद किए जाएंगे।
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