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रिजर्व बैंक और गवर्नर की भूमिका
भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन का काल एक अच्छे उपलब्धियों के लिए जाना जाएगा। उन्होंने देश की अर्थव्यवस्था को बुलंदियों पर पहुंचाया लेकिन लोकतांत्रिक व्यस्था में उन्हें बलि का बकरा बनाया गया। राजनीतिक कारणों और सरकार से अनबन के कारण उन्हें अपना पद त्यागना पड़ा। हालांकि उन्होंने अपने तीन साल के कार्यकाल का पूरा उपयोग किया।
राजन को परंपराओं के अनुसार सेवा-विस्तार नहीं मिल पाया। 4 सितंबर को उनका कार्यकाल खत्म हो गया। उनकी तरफ से कुछ अहम सवाल उठाए गए हैं जिसकी समीक्षा वाजिब है। रिजर्व बैंक की नीतियां जो सीधे अर्थव्यवस्था को नियंत्रित करती हैं उस पर सरकार का नियंत्रण कितना होना चाहिए। अगर होना चाहिए तो कितना और कब तक?
राजन से सरकार से गवर्नर का कद बढ़ाने की वकालत की है। उनकी बातों पर गौर किया जाए तो उन्होंने साफ और सीधा संदेश दिया है कि रिजर्व बैंक को स्वायत्तसाशी संस्था घोषित किया जाए। सरकार पर उसकी नीतियों का नियंत्रण कम होना चाहिए। फिलहाल ऐसा होता नहीं दिखता है।
सरकार इस बात को कभी स्वीकार करेगी यह मुझे नहीं लगता है। क्योंकि राजनीति और नौकरशाही देश की लोकतांत्रित व्यवस्था में दो अलग धुरियां हैं। दोनों में तालमेल होना आवश्यक है। लेकिन ऐसा नहीं होता है। राजतंत्र अपने को सर्वोपरि मानता है।
कभी कभी उसकी तरफ से लिए गए फैसले देश की अर्थव्यवस्था पर भारी पड़ते हैं, क्योंकि इस तरह के फैसले आम तौर पर तकनीकी और सैद्धांतिकता के बजाय राजनीति से प्रेरित होते हैं। इसका नतीजा होता है कि रिजर्व बैंक को सरकार और वित्तमंत्रालय के फैसले को मानना पड़ता है।
दूसरी बात, गवर्नर पद पर उपकृत होने वाले लोग अधिकांश राजनीतिक कृपा से आते हैं जिनका मुख्य उद्देश्य कड़वी अर्थव्यवस्था को संचालित करने बजाय राजनीतिक लचीलापन से संचालित किया जाता है और गवर्नर चाहकर भी कुछ नहीं कर पाते जिससे अर्थव्यवस्था का प्रभाव देश की व्यवस्था पर पड़ता है।
रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने सरकार ने गवर्नर के अधिकारों और अधिक शक्तिशाली बनाने की वकालत की है। उन्होंने कहा कि गवर्नर नीतिगत मामलों में अहम भूमिका निभाता है। इसलिए इसमें बदलाव होना चाहिए।
रिजर्व बैंक के गवर्नर का पद कैविनेट सचिव के समकक्ष होता है। प्रोटोकाल नियमों में वह कैबिनेट सचिव के बराबर होता है। अभी तक यह होता रहा है कि वित्तमंत्री के सुझाव पर प्रधानमंत्री गवर्नर की नियुक्ति करते थे, लेकिन इस पर कैबिनेट सचिव की अध्यक्षतावाली समिति ने उर्जित पटेल का नाम रखा।
यह नई व्यवस्था के तहत हुआ है। इसमें गवर्नर की गरिमा और पद को घटनाने की कोशिश की गई है, क्योंकि जिस समिति ने नए गवर्नर के रूप में उर्जित पटेल का नाम सुझाया, वह कैबिनेट सचिव की अध्यक्षता वाली समिति थी। सवाल उठना लाजमी है कि जब गवर्नर का पद कैबिनेट सचिव के बराबर होता है उस स्थिति में वह गवर्नर का नाम कैसे प्रस्तावित कर सकता है? राजन की पीड़ा में यह बात भी शामिल है। उनका वेतन भी सचिव के बराबर होता है।
उनका इशारा साफ था कि रिजर्व बैंक को और अधिक अधिकार दिए जाएं और उसे स्वायत्तशशी संस्था बनाया जाए। सरकार के नियंत्रण का उस पर अधिक प्रभाव न हो। उनके विचार में जब आर्थिक स्थितियां के कारण देश की अर्थव्यवस्था को खतरा हो उस दौरान रिजर्व बैंक को खुले तौर पर अपनी नीति बिना लाग लपेट के रखनी चाहिए। इसे चुने हुए प्रतिनिधियों के अधिकार में दखल न माना जाए।
सरकार और राजन के बीच वैचारिक अनबन का नतीजा है कि उन्हें खुद पहल कर अपना पद छोड़ना पड़ा, क्योंकि राजन आर्थिक नीतियों पर काफी खुलकर अपना पक्ष रखा जबकि यह बात सरकार और वित्त मंत्रालय को खलती रही, जिसका नजीता रहा कि राजीतिक कारणों से एक अच्छे गवर्नर को अपनी जिम्मेदारी से मुक्त होना पड़ा।
भाजपा के बरिष्ठ नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने जिस तरह राजन पर हमला बोला और सरकार के नुमाइंदे चुप रहे, पीएम नरेंद्र मोदी और वित्तमंत्री अरुण जेटली ने भी इस मसले पर अपनी चुप्पी नहीं तोड़ी, इससे जाहिर हो गया था कि सरकार राजन के पक्ष में नहीं है। राजन का कार्यकाल शानदार उपलब्धियों से भरा रहा है।
उन्होंने नॉन-परमाफर्मिग एसेट्स (एनपीए) और रुपये बचाने में अहम भूमिका निभाई। रुपया लगातार गिर रहा था लेकिन राजन की नीतियों ने इस पर विराम लगाया। रिजर्व बैंक का जमाकोष 100 अरब डालर से आगे बढ़ा। राजन का नाम उन चुनिंदा लोगों में शामिल है, जिन्होंने 2008 में आर्थिक मंदी की भविष्यवाणी की थी।
भारतीय अर्थव्यवस्था संभालने के लिए उनकी खुलकर तारीफ की जाती है। राजन के जाने से अर्थव्यवस्था पर कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा, क्योंकि उन्होंने अर्थनीति का सारा खाका पहले से खींच रखा है और नए गवर्नर को भी इसी लकीर पर चलना होगा।
उन्होंने ब्याज दरों में भारी कमी कर मुद्रा को स्थिर रखा। विदेशी मुद्रा भंडार रिकार्ड स्तर पर बढ़ा। राजन कोई साधरण इंसान नहीं थे। वह अतंरराष्टीय मुद्रा कोष के प्रमुख अर्थशास्त्रियों में शामिल थे। भारत आज दुनिया की सबसे प्रगतिशील अर्थव्यवस्था में शामिल है। इसमें राजन का अहम योगदान है। आम तौर पर अब तक जितने गवर्नर होते रहे हैं वे सरकार से उपकृत होते रहे हैं। वे आर्थिक नीतियों और आरबीआई की विसंगतियों पर खुल कर फैसला नहीं ले पाए, लेकिन राजन उन गवर्नरों में नहीं रहे। उन्होंने ऐसी कंपनियों की सूची बनाई और उसे जारी किया, जिन्होंने बैंकों से भारी भरकम कर्ज लिया और ब्याज नहीं अदा कर रही थीं।
इन पूंजीपतियों का नाम भी सार्वजनिक किया। पूंजीपतियों की बड़ी लॉबी इससे नाराज हुई, क्योंकि इनका संबंध सीधे राजनेताओं और राजनीतिक दलों से होता है। इस तरह की पूंजी का प्रयोग संभत: चुनावी चंदे के रूप में प्रयोग होता है। इसकी बड़ी वजह यही है कि आज तक राजनीतिक दलों ने चुनावी चंदे संबंधी जानकारी देने के लिए सूचना अधिकार अधिनियम को दिल से नहीं लिया।
विजय माल्या का प्रकरण इसी से जुड़ा एक उदाहरण है। ऐसी स्थिति में बवाल होना स्वाभाविक था। सरकारी पदक्रम में गवर्नर का क्या स्थान है यह परिभाषित नहीं है। राजन ने यह बात कबूल की है कि ओहदा बड़ा होने के बाद भी गवर्नर का पद और अधिकार तकनीकी रूप से बेहद सीमित हैं। उन्होंने रिजर्व बैंक की आतंरिक नीतियों पर खुल कर हमला किया। आम तौर पर अभी तक गवर्नर रबर स्टैम्प की भूमिका निभाते रहे थे।
कार्यकारिणी में बदलाव और पूंजीपतियों के सांठगांठ पर वे चुप रहते थे, लेकिन राजन ने इस परंपरा को तोड़ा, जिसका नतीजा सरकार के साथ उनकी अनबन रही। मतलब साफ है कि जब राजकोषिय नीतियों पर खतरा हो तो उस स्थिति में खुलकर बोलना चाहिए और नीतिगत फैसले लेने का अधिकार होना चाहिए। उसे राजतंत्र के अधिकारों में दखल या टकराव नहीं माना जाना चाहिए। लेकिन अब वक्त आ गया है जब सरकार को अर्थव्यवस्था पर अहम भूमिका निभाने वाले रिजर्व बैंक और गवर्नर के पद को राजनीतिक नियंत्रण से मुक्त कर देना चाहिए, उसे एक खुला मंच देना चाहिए, जिससे देश की अर्थनीति में दूरगामी प्रगति और प्रभाव पड़े।
राजन की बातों पर सरकार और उसके नियंताओं को गंभीरता से विचार करना चाहिए। उन्होंने एक नई बहस छेड़ी है। इस पर खुले विचार से सरकार को आगे आना चाहिए, क्योंकि यह सिर्फ रघुराम राजन की व्यक्तिगत भड़ास का नहीं, रिजर्व बैंक और उसकी नीति का सवाल है। सरकार को इस पर अपनी नीति साफ करनी चाहिए। उनकी तरफ से उठाए गए सवालों का जबाब भी देना चाहिए।
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पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा में बड़ा आतंकी हमला, 38 लोगों की मौत
पख्तूनख्वा। पाकिस्तान के खैबर पख्तूनख्वा में बड़ा आतंकी हमला हुआ है। इस हमले में 38 लोगों की मौत हो गई है। यह हमला खैबर पख्तूनख्वा के डाउन कुर्रम इलाके में एक पैसेंजर वैन पर हुआ है। हमले में एक पुलिस अधिकारी और महिलाओं समेत दर्जनों लोग घायल भी हुए हैं। जानकारी के मुताबिक उत्तर-पश्चिमी पाकिस्तान के अशांत प्रांत खैबर पख्तूनख्वा में आतंकियों ने शिया मुस्लिम नागरिकों को ले जा रहे यात्री वाहनों पर गोलीबारी की है। यह क्षेत्र में हाल के वर्षों में इस तरह का सबसे घातक हमला है। मृतकों की संख्या में इजाफा हो सकता है।
AFP की रिपोर्ट के मुताबिक इस हमले में 38 लोगों की मौत हुई है. पैसेंजर वैन जैसे ही लोअर कुर्रम के ओचुट काली और मंदुरी के पास से गुजरी, वहां पहले से घात लगाकर बैठे आतंकियों ने वैन पर अंधाधुंध गोलियां बरसानी शुरू कर दीं. पैसेंजर वैन पाराचिनार से पेशावर जा रही थी। पाकिस्तान की समाचार एजेंसी डॉन के मुताबिक तहसील मुख्यालय अस्पताल अलीजई के अधिकारी डॉ. ग़यूर हुसैन ने हमले की पुष्टि की है.
शिया और सुन्नी मुसलमानों के बीच तनाव
अफगानिस्तान की सीमा से लगे कबायली इलाके में भूमि विवाद को लेकर शिया और सुन्नी मुसलमानों के बीच दशकों से तनाव बना हुआ है। किसी भी समूह ने घटना की जिम्मेदारी नहीं ली है। जानकारी के मुताबिक “यात्री वाहनों के दो काफिले थे, एक पेशावर से पाराचिनार और दूसरा पाराचिनार से पेशावर यात्रियों को ले जा रहा था, तभी हथियारबंद लोगों ने उन पर गोलीबारी की।” चौधरी ने बताया कि उनके रिश्तेदार काफिले में पेशावर से यात्रा कर रहे थे।
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