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उत्तराखंड

बद्रीनाथ के दर्शन किए बिना केदारनाथ के दर्शन अधूरे

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बद्रीनाथ के दर्शन, केदारनाथ के दर्शन अधूरे, केदारपुरी, शिव ने दिये पांडवों को दर्शन

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बद्रीनाथ के दर्शन, केदारनाथ के दर्शन अधूरे, केदारपुरी, शिव ने दिये पांडवों को दर्शन

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केदारपुरी में शिव ने दिये पांडवों को दर्शन

सुनील परमार

रुद्रप्रयाग। हिमालय सदियों से ऋषि-मुनियों तथा देवताओं की तपस्थली रहा है। महान विभूतियों ने यहां तपस्या कर आध्यात्मिक शक्ति अर्जित की और विश्व में भारत का गौरव बढ़ाया। उत्तराखंड के हिमालय क्षेत्र में चारधाम के नाम से बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री प्रसिद्ध है। ये तीर्थ स्थल देश के चमकते हुए बहुमूल्य रत्न हैं। इनमें से बद्रीनाथ और केदारनाथ तीर्थाें के दर्शन का विषेश महत्व है। करोड़ों हिंदुओं की आस्था का प्रतीक ग्यारहवें ज्योतिर्लिंग भगवान केदारनाथ का मंदिर जिले में स्थित है। यहां की प्रतिकूल जलवायु के कारण यह मंदिर मई से अक्टूबर माह के मध्य ही दर्शनें के लिए खुलता है। कत्यूरी शैली में बने इस मंदिर के बारे में कहा जाता है कि इसका निर्माण पांडव वंश के जन्मेजय ने कराया था। यहां स्थित स्वयंभू शिवलिंग अति प्राचीन है। आदि शंकराचार्य ने इस मंदिर का जीर्णाेद्धार करवाया था।

पिंड रूप में पूजे जाते हैं भगवान शिव

जून 2013 में आई भीषण बाढ़ और भूस्खलन के कारण केदारनाथ धाम सबसे अधिक प्रभावित हुआ। मंदिर की दीवारें गिर कर बाढ़ में बह गई। इस ऐतिहासिक मंदिर का मुख्य हिस्सा और सदियों पुराना गुंबद सुरक्षित रहा। लेकिन मंदिर का प्रवेश द्वार और उसके आस-पास का इलाका पूरी तरह तबाह हो गया। उत्तराखंड में बद्रीनाथ और केदारनाथ दोनों प्रधान तीर्थ हैं। दोनों के दर्शन का बड़ा ही महात्म्य है। केदारनाथ के संबंध में लिखा है कि जो व्यक्ति केदारनाथ के दर्शन किए बिना बद्रीनाथ की यात्रा करता है, उसकी यात्रा निष्फल मानी जाती है और केदारनाथ सहित नर-नारायण मूर्ति के दर्शन का फल समस्त पापों का नाश कर जीवन मुक्ति की प्राप्ति बतलाया गया है। इस मंदिर की आयु के बारे में कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है। राहुल सांकृत्यायन के अनुसार ये 12-13वीं शताब्दी का है। एक मान्यतानुसार वर्तमान मंदिर आठवीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य द्वारा बनवाया गया।

जो पांडवों द्वारा द्वापर काल में बनाये गये पहले के मंदिर के बगल में है। मंदिर के बड़े धूसर रंग की सीढि़यों पर पाली या ब्राह्मी लिपि में कुछ खुदा है। जिसे स्पष्ट जानना मुश्किल है। फिर भी इतिहासकारों के मुताबिक शैव लोग आदि शंकराचार्य से पहले से ही केदारनाथ जाते रहे हैं। 1882 के इतिहास के अनुसार अग्रभाग के साथ मंदिर एक भव्य भवन था, जिसके दोनों ओर पूजन मुद्रा में मूर्तियां हैं। पीछे भूरे पत्थर से निर्मित एक टाॅवर है। इसके गर्भगृह की अटारी पर सोने का मुलम्मा चढ़ा है। यह मंदिर एक छह फीट ऊंचे चबूतरे पर बना हुआ है। मंदिर में मुख्य भाग मंडप और गर्भगृह के चारों ओर पदक्षिणा पथ है। बाहर प्रांगण में नंदी बैल वाहन के रूप में विराजमान है। मंदिर का निर्माण किसने कराया, इसका कोई प्रामाणिक उल्लेख नहीं मिलता है। लेकिन ऐसा भी कहा जाता है कि इसकी स्थापना आदि गुरू शंकराचार्य ने की थी। मंदिर की पूजा कुछ इस तरह की जाती है कि प्रातः काल में शिव-पिंड को प्राकृतिक रूप से स्नान कराकर उस पर घी-लेपन किया जाता है। उसके बाद धूप-दीप जलाकर आरती-उतारी जाती है। इस दौरान यात्रीगण मंदिर में प्रवेश कर पूजन कर सकते हैं, लेकिन संध्या के समय भगवान का श्रृंगार किया जाता है। उन्हें विविध प्रकार के चित्ताकर्षक ढंग से सजाया जाता है। भक्तगण दूर से केवल इसका दर्शन ही कर सकते हैं।

इस ज्योतिर्लिंग की स्थापना का इतिहास संक्षेप में यह है कि हिमालय के केदार श्रंृंग पर भगवान विष्णु के अवतार महातपस्वी नर और नारायण ऋषि तपस्या करते थे। उनकी आराधना से प्रसन्न होकर भगवान शंकर प्रकट हुए और उनके प्रार्थनानुसार ज्योतिर्लिंग के रूप में सदा वास करने का वर प्रदान किया। यह स्थल केदारनाथ पर्वतराज हिमालय के केदार नामक श्रृंग पर अवस्थित है। पंचकेदार की कथा ऐसी मानी जाती है कि महाभारत के युद्ध में विजयी होने पर पांडव गौत्र हत्या के पाप से मुक्ती पाना चाहते थे। इसके लिए वे भगवान शंकर का आशीर्वाद पाना चाहते थे, लेकिन वे उन लोगों से रुष्ट थे। भगवान शंकर के दर्शन के लिए पांडव काशी गए, पर वे उन्हें वहां नहीं मिले। वे लोग उन्हें खोजते हुए हिमालय तक आ पहुंचे। भगवान शंकर पांडवों को दर्शन नहीं देता चाहते थे, इसलिए वे वहां से अंतध्र्यान होकर केदार में जा बसे। दूसरी ओर पांडव भी लगन के पक्के थे। वे उनका पीछा करते-करते पहुंच ही गए। भगवान शंकर ने तब तक बैल का रूप धारण कर लिया और वे अन्य प्शुओं में जा मिले।

पांडवों को संदेह हो गया था। अतः भीम ने अपना विशाल रूप धारण कर दो पहाड़ों पर पैर फैला दिया। अन्य सब गाय-बैल तो निकल गए। पर शंकर जी रूपी बैल पैर के नीचे से जाने को तैयार नहीं हुए। भीम बलपूर्वक इस बैल पर झपटे, लेकिन बैल भूमि में अंतध्र्यान होने लगा। तब भीम ने बैल की त्रिकोणात्मक पीठ का भाग पकड़ लिया। भगवान शंकर पांडवों की भक्ति और दृढ़ संकल्प देखकर प्रसन्न हो गए। उन्होंने तत्काल दर्शन देकर पांडवों को पाप मुक्त कर दिया। उसी समय से भगवान शंकर बैल की पीठ की आकृति-पिंड के रूप में श्री केदारनाथ में पूजे जाते हैं। जब भगवान शंकर बैल के रूप अंतध्र्यान हुए तो उनके धड़ से ऊपर का भाग काठमांडू में प्रकट हुआ। अब वहां पशुपतिनाथ का प्रसिद्ध मंदिर है। शिव की भुजाएं तुंगनाथ में, मुख रुद्रनाथ में, नाभि मद्महेश्वर में और जटा कल्पेश्वर में प्रकट हुए। इसलिए इन चार स्थानों सहित श्री केदारनाथ को पंचकेदार कहा जाता है। यहां शिवजी के भव्य मंदिर बने हुए हैं।

केदारनाथ की पूजा के बारे में कुछ जानकारियां: केदारनाथ मंदिर आम दर्शनार्थियों के लिए प्रातः सात बजे खुलता है। दोपहर एक से दो बजे तक विषेश पूजा होती है और उसके बाद विश्राम के लिए मंदिर बंद कर दिया जाता है। पुनः शाम पांच बजे भक्तों के दर्शन के लिए मंदिर खोला जाता है। पांच मुखी वाली भगवान शिव की प्रतिमा का विधिवत श्रृंगार करके साढ़े सात बजे से साढ़े आठ बजे तक नियमित आरती होती है। रात्रि साढ़े आठ बजे केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग का मंदिर बंद कर दिया जाता है। शीतकाल में केदारघाटी बर्फ से ढक जाती है। यद्यपि केदारनाथ मंदिर के खोलने और बंद करने का मुहुर्त निकाला जाता है, लेकिन यह सामान्यतः नवम्बर माह की 15 तारीख से पूर्व (वृश्चिक संक्रांति से दो दिन पूर्व) बंद होता जाता है और छह माह बाद अर्थात बैसाखी के बाद कपाट खुलते हैं। ऐसी स्थिति में केदारनाथ की पंचमुखी प्रतिमा को ऊखीमठ स्थित पंचकेदार गद्दीस्थल ओंकारेश्वर मंदिर में लाया जाता है। इसी प्रतिमा की पूजा यहां भी रावल करते हैं। केदारनाथ में भक्त शुल्क जमा कराकर रसीद प्राप्त करते हैं और उसके अनुसार ही वह मंदिर की पूजा-आरती कराते हैं या फिर भोग-प्रसाद ग्रहण करते हैं।  भगवान की पूजाओं के क्रम में प्रातःकालीन पूजा, महाभिषेक पूजा, अभिषेक, लघु रुद्राभिषेक, षौडशोपचार पूजन, अष्टोपचार पूजन, सम्पूर्ण आरती, पांडव पूजा, गणेश पूजा, श्री भैरव पूजा, पार्वती जी की पूजा, शिव सहस्त्रनाम आदि प्रमुख है। मंदिर समिति द्वारा केदारनाथ मंदिर में पूजा कराने के लिए भक्तों से जो दक्षिणा ली जाती है, उसमें समिति समय-समय पर परिवर्तन भी करती है।

उत्तराखंड

शीतकाल की शुरू होते ही केदारनाथ धाम के कपाट बंद

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उत्तराखंड। केदारनाथ धाम में भाई दूज के अवसर पर श्रद्धालुओं के लिए शीतकाल का आगमन हो चुका है। बाबा केदार के कपाट रविवार सुबह 8.30 बजे विधि-विधान के साथ बंद कर दिए गए। इसके साथ ही इस साल चार धाम यात्रा ठहर जाएगी। ठंड के इस मौसम में श्रद्धालु अब अगले वर्ष की प्रतीक्षा करेंगे, जब कपाट फिर से खोलेंगे। मंदिर के पट बंद होने के बाद बाबा की डोली शीतकालीन गद्दीस्थल की ओर रवाना हो गई है।इसके तहत बाबा केदार के ज्योतिर्लिंग को समाधिरूप देकर शीतकाल के लिए कपाट बंद किए गए। कपाट बंद होते ही बाबा केदार की चल उत्सव विग्रह डोली ने अपने शीतकालीन गद्दीस्थल, ओंकारेश्वर मंदिर, उखीमठ के लिए प्रस्थान किया।

बता दें कि हर साल शीतकाल की शुरू होते ही केदारनाथ धाम के कपाट बंद कर दिया जाते हैं. इसके बाद बाबा केदारनाथ की डोली शीतकालीन गद्दीस्थल ओंकारेश्वर मंदिर ऊखीमठ के लिए रवाना होती है. अगले 6 महीने तक बाबा केदार की पूजा-अर्चना शीतकालीन गद्दीस्थल ओंकारेश्वर मंदिर ऊखीमठ में ही होती है.

उत्तरकाशी ज़िले में स्थिति उत्तराखंड के चार धामों में से एक गंगोत्री में मां गंगा की पूजा होती है। यहीं से आगे गोमुख है, जहां से गंगा का उदगम है। सबसे पहले गंगोत्री के कपाट बंद हुए हैं। अब आज केदारनाथ के साथ-साथ यमुनोत्री के कपाट बंद होंगे। उसके बाद आखिर में बदरीनाथ धाम के कपाट बंद किए जाएंगे।

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