आध्यात्म
रामायण: जानिए भगवान श्री राम की सम्पूर्ण जीवन गाथा
भगवान विष्णु ने अपने सातवें अवतार में भगवान श्रीराम के रूप में जन्म लिया था जिनका मुख्य उद्देश्य रावण का वध करके धरती को पापमुक्त करना था व धर्म की पुनः स्थापना करनी थी। किंतु श्रीराम के रूप में उन्होंने एक ऐसा आदर्श स्थापित किया कि उनके जीवन की हरेक घटना हमारे लिए प्रेरणा बन गयी। यदि हम उनके जीवन में घटित किसी भी घटना का विश्लेषण करेंगे तो पाएंगे कि हर घटना हमें कुछ न कुछ शिक्षा देकर जाती हैं। इसलिये आज हम आपको श्रीराम के जन्म से लेकर उनके समाधि लेने तक की मुख्य घटना व उनसे जुड़ी शिक्षा का वर्णन करेंगे।
भगवान श्रीराम का जन्म
अयोध्या के नरेश दशरथ की तीन रानियाँ थी जिनके नाम कौशल्या, कैकेयी व सुमित्रा था। वही दूसरी ओर लंका में अधर्मी राजा रावण का राज्य था जो राक्षसों का सम्राट था। उसके राक्षस केवल लंका तक ही सिमित नही थे बल्कि वे समुंद्र के इस पार दंडकारण्य के वनों में भी फैले हुए थे जिसके कारण ऋषि-मुनियों को भगवान की स्तुति करने व धार्मिक कार्यों को करने में समस्या हो रही थी।
आकाश में स्थित देवता भी रावण के बढ़ते प्रभाव के कारण व्यथित थे। तब सभी भगवान विष्णु के पास सहायता मांगने गए। भगवान विष्णु ने कहा कि अब उनका सातवाँ अवतार लेने का समय आ गया हैं। इसके बाद उन्होंने दशरथ पुत्र के रूप में महारानी कौशल्या के गर्भ से जन्म लिया जिनका नाम राम रखा गया।
श्रीराम के साथ उनके तीन सौतेले भाई भरत, लक्ष्मण व शत्रुघ्न का भी जन्म हुआ। अयोध्या की प्रजा अपने भावी राजा को पाकर अत्यंत प्रसन्न थी तथा चारो ओर उत्सव की तैयारी होने लगी।
श्रीराम का माता सीता से विवाह
ब्रह्मर्षि विश्वामित्र राम व लक्ष्मण को लेकर मिथिला राज्य गए जहाँ माता सीता का स्वयंवर था। उस स्वयंवर में महाराज जनक ने एक प्रतियोगिता रखी थी कि जो भी वहां रखे शिव धनुष को उठाकर उस पर प्रत्यंचा चढ़ा देगा उसका विवाह उनकी सबसे बड़ी पुत्री सीता से हो जाएगा। जब श्रीराम ने माता सीता को बगीचे में फूल चुनते हुए देखा था तो उस समय मृत्यु लोक में दोनों का प्रथम मिलना हुआ था। दोनों ही जानते थे कि वे भगवान विष्णु व माता लक्ष्मी का अवतार हैं लेकिन उन्हें मनुष्य रूप में अपना धर्म निभाना था। प्रतियोगिता का शुभारंभ हुआ व एक-एक करके सभी राजाओं ने उस शिव धनुष को उठाने का प्रयास किया।
वह शिव धनुष इतना भारी था कि इसे पांच हज़ार लोग सभा में उठाकर लाए थे। सभा में कोई भी ऐसा बाहुबली नही था जो उस धनुष को उठाकर उस पर प्रत्यंचा चढ़ा सके। अंत में विश्वामित्र जी ने श्रीराम को वह धनुष उठाने की आज्ञा दी। गुरु की आज्ञा पाकर श्रीराम ने शिव धनुष को प्रणाम किया व एक ही बारी में धनुष उठाकर उस पर प्रत्यंचा चढ़ाने लगे जिससे शिव धनुष टूट गया। यह दृश्य देखकर वहां उपस्थित सभी अतिथिगण आश्चर्यचकित थे। इसके पश्चात श्रीराम का विवाह माता सीता से हो गया।
श्रीराम को चौदह वर्ष का वनवास
अपने विवाह के कुछ समय पश्चात उन्हें अपने पिता दशरथ की ओर से राज्यसभा में बुलाया गया व उनके राज्याभिषेक करने का निर्णय सुनाया गया। शुरू में तो श्रीराम असहज हुए लेकिन इसे अपने पिता की आज्ञा मानकर उन्होंने स्वीकार कर लिया। इसके बाद पूरी अयोध्या नगरी में इसकी घोषणा कर दी गयी व उत्सव की तैयारियां होने लगी।
अगली सुबह जब उनके पिता राज्यसभा में नही आए तब उन्हें दशरथ का अपनी सौतेली माँ कैकेयी के कक्ष में होने का पता चला। वहां जाकर उन्हें ज्ञात हुआ कि कैकेयी ने राजा दशरथ से अपने पुराने दो वचन मांग लिए हैं जिनमे प्रथम वचन राम के छोटे भाई व कैकेयी पुत्र भरत का राज्याभिषेक था व दूसरा वचन श्रीराम को चौदह वर्ष का वनवास। उनके पिता यह वचन निभा पाने में स्वयं को असहाय महसूस कर रहे थे इसलिये वे अपने कक्ष में बैठकर विलाप कर रहे थे।
जब वे कक्ष में पहुचे तो अपने पिता को दुखी पाया। उनके पिता ने श्रीराम से कहा कि वे विद्रोह करके उनसे यह राज्य छीन ले तथा स्वयं राजा बन जाए। श्रीराम ने इसे सिरे से नकार दिया तथा अपने पिता के दिए गए वचनों को निभाने के लिए सहजता से वनवास स्वीकार कर लिया। इसके साथ ही उन्होंने अपनी माता कैकेयी से कहा कि यदि उन्हें भरत के लिए राज्य ही चाहिए था तो वे सीधे उन्हें ही कह देती, वे प्रसन्नता से वह राज्य भरत को दे देते।
श्रीराम का अपनी पत्नी सीता व भाई लक्ष्मण सहित वनवास जाना
श्रीराम ने अपने पिता का वचन निभाने के लिए वनवास जाने का निर्णय ले लिया। उनके साथ उनकी पत्नी सीता ने अपना पत्नी धर्म निभाते हुए वनवास में जाने का निर्णय लिया। साथ ही हमेशा उनके साथ रहने वाले छोटे भाई लक्ष्मण भी उनके साथ चले। उस समय उनके दो भाई भरत व शत्रुघ्न अपने नाना के राज्य कैकेय प्रदेश में थे, इसलिये उन्हें किसी घटना का ज्ञान नही था। जब श्रीराम वनवास जाने लगे तो अयोध्या की प्रजा विद्रोह पर उतर आयी। उन्होंने भरत को अपना राजा मानने से साफ मना कर दिया। यह देखकर श्रीराम ने अयोध्या की प्रजा को समझाया तथा अपने राजा की आज्ञा का पालन करने को कहा।
श्रीराम ने अपने वनवास में जाने के पश्चात भरत को राज्य चलाने में सहयोग देने को कहा। इससे श्रीराम ने यह शिक्षा दी कि चाहे उनके साथ कैसा भी अन्याय हुआ हो लेकिन उन्होंने अपनी सौतेली माँ कैकेयी व भरत के प्रति कभी कोई दुर्भावना नही रखी।
सूर्पनखा व खर-दूषण का प्रसंग
एक दिन श्रीराम अपनी कुटिया में बैठे थे तब रावण की बहन सूर्पनखा वहां विचरण करती हुई आयी। श्रीराम को देखते ही वह उन पर मोहित हो गयी व उनके सामने विवाह का प्रस्ताव रखा। श्रीराम ने नम्रता से अपने एक पत्नी धर्म को बताते हुए उसका प्रस्ताव ठुकरा दिया। फिर उसने लक्ष्मण के सामने भी वही प्रस्ताव रखा जिसका लक्ष्मण ने उपहास किया। अपना उपहास देखकर वह माता सीता को खाने के लिए दौड़ी तो लक्ष्मण ने अपनी तलवार से उसकी नाक व एक कान काट दिया। वह रोती हुई अपने भाई खर-दूषण के पास गयी। खर-दूषण रावण के भाई थे जिनकी छावनी उसी राज्य में थी।
तब खर-दूषण अपने चौदह हज़ार सैनिकों के साथ श्रीराम से युद्ध करने पहुंचे तो श्रीराम ने एक ही बाण से सभी को परास्त कर दिया व खर-दूषण का वध कर दिया।
माता सीता का हरण
फिर एक दिन माता सीता को अपनी कुटिया के पास एक स्वर्ण मृग घूमते हुए दिखाई दिया तो माता सीता ने उसे अपने लिए लाने का आग्रह किया। यह सुनकर भगवान राम उस मृग को लेने निकल पड़े लेकिन यह रावण की एक चाल थी। वह मृग ना होकर रावण का मायावी मामा मारीच था। वह मृग श्रीराम को कुटिया से बहुत दूर ले गया तथा जब श्रीराम को उसके मायावी होने का अहसास हुआ तो उन्होंने उस पर तीर चला दिया। तीर के लगते ही वह मृग राम की आवाज़ में लक्ष्मण-लक्ष्मण चिल्लाने लगा। यह देखकर माता सीता ने लक्ष्मण को श्रीराम की सहायता करने भेजा। लक्ष्मण माता सीता की रक्षा के लिए वहां लक्ष्मण रेखा खींचकर चले गए।
लक्ष्मण के जाते ही पीछे से रावण ने माता सीता का अपहरण कर लिया व अपने पुष्पक विमान में बिठाकर लंका ले गया। जब श्रीराम व लक्ष्मण वापस आए तो माता सीता को वहां ना पाकर व्याकुल हो उठे। दोनों भाई चारो दिशाओं में सीता को खोजने लगे तो आगे चलकर उन्हें मरणासन्न स्थिति में जटायु दिखाई पड़े। जटायु ने उन्हें बताया कि लंका का राजा रावण माता सीता का अपहरण करके दक्षिण दिशा में ले गया हैं। यह कहकर जटायु ने प्राण त्याग दिए। इसके बाद उनके अंतिम संस्कार का उत्तरदायित्व श्रीराम ने स्वयं उठाया तथा एक पुत्र की भांति सभी कर्तव्य निभाए।
राम-हनुमान मिलान
किष्किन्धाकाण्ड में वनवास के दौरान दण्डकारण्य वन में असुराें का नाश करते हुए भगवान पम्पासर की ओर प्रस्थान करते हैं। सीता की खोज में श्रीराम ऋष्यमूक पर्वत की ओर बढ़ते हैं। यहां श्रीराम-हनुमान मिलन, सुग्रीव-रामजी की मित्रता, बाली का उद्धार, सीता की खाेज में वानरों का विभिन्न दिशाओं में प्रस्थान का विवरण आता है। इसके बाद समुद्र लांघकर सीता का पता लगाने के लिए जामवंतजी द्वारा हनुमान काे उनका बल याद दिलाया जाता है।
श्रीराम व रावण युद्ध
श्रीराम व रावण की सेना के बीच भीषण युद्ध शुरू हो गया। इस युद्ध में रावण के सभी भाई-बंधु, मित्र, योद्धा मारे गए व अंत में रावण की भी मृत्यु हो गयी। साथ ही श्रीराम की सेना पर भी कई बार विपत्ति आयी। अंतिम दिन रावण का श्रीराम के हाथों वध हुआ। इस दिन को हम सभी दशहरा के नाम से मनाते हैं। जब रावण का वध हो गया तो मंदोदरी सहित उसकी सभी पत्नियाँ वहां आकर विलाप करने लगी। रावण के अहंकार स्वरुप उसके कुल में सभी का वध हो चुका था विभीषण थे जो श्रीराम के पक्ष में थे। उन्होंने विभीषण को लंका का अगला राजा घोषित कर दिया तथा लंका पुनः लंकावासियों को ही लौटा दी।
माता सीता की अग्नि परीक्षा
विभीषण को लंका का राजा घोषित करने के पश्चात उन्होंने माता सीता को मुक्त करने का आदेश दिया। इसके बाद उन्होंने लक्ष्मण को अग्नि का प्रबंध करने को कहा ताकि सीता अग्नि परीक्षा देकर वापस आ सके। यह सुनकर लक्ष्मण क्रोधित हो गए तो श्रीराम ने उन्हें बताया कि जिस सीता को रावण उठाकर लेकर गया था वह असली सीता नही बल्कि उनकी परछाई मात्र थी।
असली सीता को उन्होंने हरण से पहले ही अग्नि देव को सौंप दिया था क्योंकि रावण इतना भी शक्तिशाली नही था कि माता लक्ष्मी के स्वरुप माँ सीता का हरण कर सके। इसके बाद अग्नि का प्रबंध किया गाया व उसमे से भगवान श्रीराम को अपनी पत्नी सीता पुनः प्राप्त हुई।
अयोध्या वापसी व राज्याभिषेक
इसके बाद श्रीराम पुष्पक विमान से अयोध्या लौट आए। अयोध्यावासियों ने अपने राजा श्रीराम के वापस आने की खुशी में पूरी नगरी को दीयों से रोशन कर दिया था। दूर से ही देखने पर अयोध्या जगमगा रही थी। इसके बाद विधिवत रूप से श्रीराम का राज्याभिषेक हुआ।
माता सीता का त्याग
कुछ समय बाद विधि ने ऐसी चाल चली कि श्रीराम व माता सीता का वियोग हो गया। अपने गुप्तचरों के माध्यम से श्रीराम को सूचना मिली जिसने उनके मन में संशय उत्पन्न किया। सच्चाई का पता लगाने वे स्वयं वेश बदलकर प्रजा के बीच गए व उनके मन की बात पता लगायी। उन्हें ज्ञात हुआ कि अधिकांश प्रजा माता सीता के चरित्र पर संदेह कर रही हैं क्योंकि वे रावण के महल में लगभग एक वर्ष तक रही थी। अयोध्या की प्रजा श्रीराम के द्वारा माता सीता का त्याग चाहती थी।
यह सुनकर श्रीराम का मन व्यथित हो उठा तथा उन्होंने अपनी पत्नी सीता से विचार-विमर्श किया। अंत में यह निर्णय लिया गया कि श्रीराम माता सीता का त्याग कर देंगे व माता सीता वन में जाकर निवास करेंगी।
श्रीराम को लव-कुश को अपनाना
राम ने दो बालक राव-कुश के बारे में सुना जिन्होंने कहा की वो राम के पुत्र हैं। यह सुनकर वहां खड़े सभी लोग आश्चर्यचकित रह गए तथा श्रीराम भी अधीर हो गए लेकिन एक राजा का कर्तव्य निभाते हुए उन्होंने स्वयं माता सीता को राज दरबार में आकर यह बताने को कहा कि यह दोनों उन्ही के पुत्र हैं। अगले दिन माता सीता राज दरबार में आयी तथा द्रवित होकर यह घोषणा की कि यदि ये दोनों श्रीराम व उन्ही के पुत्र हैं तो यह धरती फट जाए व माता सीता उसमे समा जाए।
इतना सुनते ही धरती फट पड़ी व माता सीता उसमे समा गयी। श्रीराम यह देखकर माता सीता को पकड़ने दौड़े लेकिन बचा नहीं सके। इससे वे विलाप करने लगे तथा अत्यंत क्रोधित हो गए। तब भगवान ब्रह्मा ने प्रकट होकर उन्हें उनके असली स्वरुप का ज्ञान करवाया तथा बताया कि अब माता सीता से उनकी भेंट वैकुण्ठ धाम में होगी। इसके बाद श्रीराम का मन शांत हुआ व उन्होंने अपने दोनों पुत्रों लव व कुश को अपना लिया।
श्रीराम का सरयू नदी में समाधि लेना
माता सीता के जाने के बाद श्रीराम ने अयोध्या का राजकाज कुछ वर्षों तक और संभाला। इसके बाद उन्होंने अपना साम्राज्य अपने दोनों पुत्रों लव-कुश व भरत, लक्ष्मण व शत्रुघ्न के पुत्रों में बाँट दिया व स्वयं जल में समाधि ले ली। समाधि लेने से पहले वे जानते थे कि लक्ष्मण व हनुमान उन्हें ऐसा नही करने देंगे। इसलिये उन्होंने हनुमान को तो पाताल लोक भेज दिया तथा लक्ष्मण का योजना के तहत त्याग कर दिया। अपने त्याग के बाद लक्ष्मण ने सरयू नदी में समाधि ले ली। उसके बाद श्रीराम ने अपने बाकि दो भाइयों व अयोध्या की प्रजा के कुछ लोगो सहित जल में समाधि ले ली व अपने धाम को पहुँच गए। इस प्रकार श्रीराम अपने अवतार का उद्देश्य पूर्ण कर पुनः अपने धाम वैकुण्ठ पधार गए।
आध्यात्म
मौनी अमावस्या स्नान के पहले नव्य प्रकाश व्यवस्था से जगमग हुई कुम्भ नगरी प्रयागराज
महाकुम्भ नगर। त्रिवेणी के तट पर आस्था का जन समागम है। महाकुम्भ के इस आयोजन को दिव्य ,भव्य और नव्य स्वरूप देने के लिए इससे जुड़े शहर के उन मार्गों और चौराहों को भी आकर्षक स्वरूप दिया गया है जहां से होकर पर्यटक और श्रद्धालु महा कुम्भ पहुंच रहे हैं। इसी क्रम में अब सड़क किनारे के वृक्षों को रोशनी के माध्यम से नया स्वरूप दिया गया है।
मौनी से पहले शहर की प्रकाश व्यवस्था को दिया गया नया लुक
प्रयागराज महा कुम्भ आ रहे आगंतुकों के स्वागत के लिए की कुम्भ नगरी की सड़कों को सजाया गया, शहर के चौराहे सुसज्जित किए गए और बारी है सड़क के दोनों तरह मौजूद हरे भरे वृक्षों को नया लुक देने की । नगर निगम प्रयागराज ने इस संकल्प को धरती पर उतारा है। नगर निगम के मुख्य अभियंता ( विद्युत ) संजय कटियार बताते हैं कि शहर में सड़क किनारे लगे वृक्षों का नया लुक देने के यूपी में पहली बार नियॉन और थीमेटिक लाइट के संयोजित वाली प्रकाश व्यवस्था लागू की गई है। इस नई व्यवस्था में शहर के महत्वपूर्ण मार्गों के 260 वृक्षों के तनों, शाखाओं और पत्तियों में अलग अलग थीम की रोशनी लगाई गई है। इनमें नियॉन और स्पाइरल लाइट्स को इस तरह संयोजित किया गया है जिसे देखकर ऐसा प्रतीत होता है कैसे रात के अंधेरे में पूरा वृक्ष आलोकित हो गया है। शहर से गुजरकर महा कुम्भ जाने वक्ष पर्यटक और श्रद्धालु इस भव्य प्रकाश व्यवस्था का अवलोकन कर सकेंगे।
शहर के 8 पार्कों में भी लगाए म्यूरल्स
सड़कों और चौराहों के अलावा शहर के अंदर के छोटे बड़े पार्कों में भी पहली बार उन्हें सजाने के लिए नए ढंग से संवारा गया है। नगर निगम के चीफ इंजीनियर ( विद्युत) संजय कटियार का कहना है कि शहर के चयनित आठ पार्कों में पहली बार कांच और रोशनी के संयोजन से म्यूरल्स बनाए गए हैं जो वहां से गुजरने वालों का ध्यान खींच रहे हैं। 12 तरह के म्यूरल्स इन पार्कों में लगाए गए हैं जो बच्चों के लिए खास तौर पर आकर्षण का केंद्र बन रहे हैं। इसके पूर्व शहर शहर की 23 प्रमुख सड़कों , आरओबी , और फ्लाईओवर्स पर स्ट्रीट लाइट और पोल पर अलग-अलग थीम पर आधारित रंग-बिरंगे डिजाइन वाले मोटिव्स लगाए गए थे ।
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